ज्ञानेश्वरी पृ. 638

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-16
दैवासुर सम्पद्वि भाग योग


आत्मसंभाविता: स्तब्धा धनमानमदान्विता:
यजन्ते नामयज्ञैस्ते दम्भेनाविधिपूर्वकम् ॥17॥

वैसे ही ये लोग भी स्वयं ही अपनी महत्ता प्रतिपादित करके मारे अभिमान के विलक्षणरूप से फूल उठते हैं। फिर ढाले हुए लौह-स्तम्भ अथवा आकाश में उठे हुए पर्वत की भाँति वे कभी झुकना अर्थात् नम्र होना जानते ही नहीं। उन्हें अपनी सज्जनता ऐसी अच्छी जान पड़ती है कि वे पूरे संसार को तृण से भी तुच्छ समझते हैं। इसके अतिरिक्त हे धनुर्धर! उन्हें धन का लोभ इतना अधिक होता है कि वे कभी भूलकर भी उचित-अनुचित का विचार नहीं करते। जिसमें इस प्रकार की वृत्ति समायी हो, वह भला यज्ञ क्यों करने लगा! पर इस बात का कोई नियम ही नहीं होता कि आसुरी पिशाच क्या करेंगे और क्या नहीं करेंगे। इसीलिये यदा-कदा मूर्खता के चक्कर में पड़कर ये लोग यज्ञों का स्वाँग रचने का भी विचार करते हैं। परन्तु यज्ञ के लिये न तो कुण्डकी, न मण्डप की और न वेदी की ही आवश्यकता होती है। इसके लिये उन्हें साधनों की भी आवश्यकता नहीं होती तथा शास्त्रोक्त विधि-विधानों से तो मानों उनकी शत्रुता ही रहती है। यदि कहीं इनके श्रवणेन्द्रियों में देवताओं अथवा ब्राह्मणों के नाम की भनक भी पड़ जाय तो उसे भी ये लोग सहन नही कर सकते। तो फिर भला ऐसी अवस्था में इनके यज्ञों के चक्कर में कोई देवता अथवा ब्राह्मण कहाँ से आ सकता है? पर फिर भी जैसे चतुर लोग मरे हुए बछड़े की खाल में भूसा भरकर उसे गौ के सामने खड़ा करके उसका दूध दुहते हैं, वैसे ही ये आसुरी लोग भी सारे जगत् को निमन्त्रण देकर बलात् अपने यज्ञों में ले आते हैं और उनसे उपहार आदि लेकर उन्हें व्यर्थ ही खर्च में डालते हैं। इस प्रकार ऐसे लोग यदा-कदा अपने लोभ के कारण हवन करते हैं और उसमें जीवों का सर्वनाश करने की कामना करते हैं।[1]

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श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681
  1. (378-388)

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