ज्ञानेश्वरी पृ. 635

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-16
दैवासुर सम्पद्वि भाग योग


इदमद्य मया लब्धमिमं प्राप्स्ये मनोरथम् ।
इदमस्तीदमपि मे भविष्यति पुनर्धनम् ॥13॥

आसुरी प्रवृत्ति वाला व्यक्ति कहता है कि मैंने बहुतेरों की सम्पत्ति हस्तगत कर ली है, अत: मैं धन्य हूँ अथवा नहीं? इस प्रकार वह ज्यों-ज्यों आत्मप्रशंसा के क्षेत्र में प्रवेश करता है, त्यों-त्यों उसका मन उस आत्मप्रशंसा के मार्ग में और भी अधिक बढ़ने लगता है और तब वह कहने लगता है कि अब और कौन मेरे चंगुल में फँसता है और किसकी सम्पत्ति मुझे मिलती है! अभी तक हस्तगत किया हुआ जो कुछ भी है, वह सब तो मेरा हो ही चुका है। अब मुझे ऐसी युक्ति सोचनी चाहिये कि इसी पूँजी के सहारे सारे चराचर का मुझे लाभ हो और इस प्रकार मैं समस्त संसार के ऐश्वर्य का स्वामी बन जाऊँ और फिर मेरी दृष्टिपथ पर जो कुछ भी आवेगा, उसे अपने चंगुल में फँसाये बिना मैं नहीं मानूँगा।[1]


असौ मया हत: शत्रुर्हनिष्ये चापरानपि ।
ईश्वरोऽहमहं भोगी सिद्धोऽहं बलवान्सुखी ॥14॥

अभी तक मैंने जितने शत्रुओं की हत्या की है, वह तो कुछ भी नहीं है। मैं अभी और भी अधिक लोगों को मारूँगा। फिर इस सारे संसार में एकमात्र मेरा ही बोलबाला रहेगा। फिर जो लोग मेरी आज्ञा के अधीन रहेंगे, उन्हें छोड़कर शेष अन्य लोगों की हत्या कर डालूँगा। लोग जिसे ईश्वर कहते हैं, वह मैं ही हूँ। इस सुखभोगरूपी साम्राज्य का राजा मैं ही हूँ तथा समस्त सुखों का आगार भी मैं ही हूँ। मेरे सम्मुख इन्द्र भी कोई चीज नहीं है। मैं मन-वाणी अथवा शरीर से जो भी काम करना चाहूँगा, वह भला कैसे न होगा? मेरे अलावा और ऐसा कौन है जिसमें आज्ञा करने की शक्ति हो। काल भी तभी तक बलवान् है जब तक मुझसे उसका पाला नहीं पड़ता। यदि कोई सुख की राशि है तो वह मैं ही हूँ।[2]

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टीका टिप्पडी और संदर्भ

  1. (348-351)
  2. (352-356)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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