श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-16
दैवासुर सम्पद्वि भाग योग
आसुरी प्रवृत्ति वाला व्यक्ति कहता है कि मैंने बहुतेरों की सम्पत्ति हस्तगत कर ली है, अत: मैं धन्य हूँ अथवा नहीं? इस प्रकार वह ज्यों-ज्यों आत्मप्रशंसा के क्षेत्र में प्रवेश करता है, त्यों-त्यों उसका मन उस आत्मप्रशंसा के मार्ग में और भी अधिक बढ़ने लगता है और तब वह कहने लगता है कि अब और कौन मेरे चंगुल में फँसता है और किसकी सम्पत्ति मुझे मिलती है! अभी तक हस्तगत किया हुआ जो कुछ भी है, वह सब तो मेरा हो ही चुका है। अब मुझे ऐसी युक्ति सोचनी चाहिये कि इसी पूँजी के सहारे सारे चराचर का मुझे लाभ हो और इस प्रकार मैं समस्त संसार के ऐश्वर्य का स्वामी बन जाऊँ और फिर मेरी दृष्टिपथ पर जो कुछ भी आवेगा, उसे अपने चंगुल में फँसाये बिना मैं नहीं मानूँगा।[1]
अभी तक मैंने जितने शत्रुओं की हत्या की है, वह तो कुछ भी नहीं है। मैं अभी और भी अधिक लोगों को मारूँगा। फिर इस सारे संसार में एकमात्र मेरा ही बोलबाला रहेगा। फिर जो लोग मेरी आज्ञा के अधीन रहेंगे, उन्हें छोड़कर शेष अन्य लोगों की हत्या कर डालूँगा। लोग जिसे ईश्वर कहते हैं, वह मैं ही हूँ। इस सुखभोगरूपी साम्राज्य का राजा मैं ही हूँ तथा समस्त सुखों का आगार भी मैं ही हूँ। मेरे सम्मुख इन्द्र भी कोई चीज नहीं है। मैं मन-वाणी अथवा शरीर से जो भी काम करना चाहूँगा, वह भला कैसे न होगा? मेरे अलावा और ऐसा कौन है जिसमें आज्ञा करने की शक्ति हो। काल भी तभी तक बलवान् है जब तक मुझसे उसका पाला नहीं पड़ता। यदि कोई सुख की राशि है तो वह मैं ही हूँ।[2] |
टीका टिप्पडी और संदर्भ
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