ज्ञानेश्वरी पृ. 633

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-16
दैवासुर सम्पद्वि भाग योग


चिन्तामपरिमेयां च प्रलयान्तामुपाश्रिता: ।
कामोपभोगपरमा एतावदिति निश्चिता: ॥11॥

इस प्रकार के लोगों के सारे व्यवहार बस एक इसी रीति के अनुसार होते हैं; पर साथ ही उन्हें यह भी चिन्ता सताती रहती है कि मरणोपरान्त क्या होगा। ये आसुरी स्वभाव वाले उसे अघोर चिन्ता को बराबर बढ़ाते रहते हैं जो पाताल से भी अधिक गहरी और आकाश से भी अधिक ऊँची होती है तथा जिसके सम्मुख यह त्रिभुवन भी परमाणु के सदृश जान पड़ता है, जो भोगरूपी वस्त्र के तारों को नापकर जीव को अपरिमित दुःख देती है तथा जो अपने जीवरूपी प्रेमी को मृत्युपर्यन्त भी त्यागने का विचार अपने मन में नहीं आने देती। वे आसुरी प्रवृत्ति वाले लोग निःसार विषयोपभोग का शौक अपने मन में पाल लेते हैं। वे लोग स्त्रियों के गीत सुनना चाहते हैं उनके रूप सौन्दर्य को आँखों से देखना चाहते हैं, उन्हें प्रगाढ़लिंगन करना चाहते हैं और अमृत को भी उन पर निछावर कर देना चाहते हैं। आशय यह कि वे अपने अन्दर यह धारणा अच्छी तरह से बना लेते हैं कि स्त्रियों से बढ़कर अन्य किसी पदार्थ में वास्तविक सुख नहीं है और तब उस स्त्रीभोग के लिये वे स्वर्ग, पाताल तथा दिशाओं की सीमाओं का अतिक्रमण करके दौड़ लगाते रहते हैं।[1]

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टीका टिप्पडी और संदर्भ

  1. (330-336)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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