श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-16
दैवासुर सम्पद्वि भाग योग
इस प्रकार के लोगों के सारे व्यवहार बस एक इसी रीति के अनुसार होते हैं; पर साथ ही उन्हें यह भी चिन्ता सताती रहती है कि मरणोपरान्त क्या होगा। ये आसुरी स्वभाव वाले उसे अघोर चिन्ता को बराबर बढ़ाते रहते हैं जो पाताल से भी अधिक गहरी और आकाश से भी अधिक ऊँची होती है तथा जिसके सम्मुख यह त्रिभुवन भी परमाणु के सदृश जान पड़ता है, जो भोगरूपी वस्त्र के तारों को नापकर जीव को अपरिमित दुःख देती है तथा जो अपने जीवरूपी प्रेमी को मृत्युपर्यन्त भी त्यागने का विचार अपने मन में नहीं आने देती। वे आसुरी प्रवृत्ति वाले लोग निःसार विषयोपभोग का शौक अपने मन में पाल लेते हैं। वे लोग स्त्रियों के गीत सुनना चाहते हैं उनके रूप सौन्दर्य को आँखों से देखना चाहते हैं, उन्हें प्रगाढ़लिंगन करना चाहते हैं और अमृत को भी उन पर निछावर कर देना चाहते हैं। आशय यह कि वे अपने अन्दर यह धारणा अच्छी तरह से बना लेते हैं कि स्त्रियों से बढ़कर अन्य किसी पदार्थ में वास्तविक सुख नहीं है और तब उस स्त्रीभोग के लिये वे स्वर्ग, पाताल तथा दिशाओं की सीमाओं का अतिक्रमण करके दौड़ लगाते रहते हैं।[1] |
टीका टिप्पडी और संदर्भ
- ↑ (330-336)
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