श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-16
दैवासुर सम्पद्वि भाग योग
भगवान् श्रीकृष्ण फिर कहते हैं-“हे पाण्डव! चाहे कितना ही जल क्यों न हो, पर उससे जाल कभी भरा नहीं जा सकता और आग में चाहे कितना ही अधिक ईंधन क्यों न डाला जाय, पर उसके जलाने के लिये कुछ भी पर्याप्त नहीं होता। इस प्रकार जिनकी उदर-पूर्ति कभी नहीं होती, उनमें जो सबसे बढ़कर माना जा सकता है, उस काम को, हे पार्थ! ऐसे लोग अपने सीने से चिपकाये रखते हैं और अपने चतुर्दिक् ढोंग खड़ा किये रहते हैं। मस्त हाथी को मदिरा पिलाने से उसकी जो दशा हो जाती है, ठीक वही दशा ऐसे लोगों की भी होती है और ज्यों-ज्यों वे वृद्ध होते जाते हैं, त्यों-त्यों उनका अभिमान भी बढ़ता जाता है। इस प्रकार के लोगों में एक तो पहले से ही दुराग्रह भरा रहता है; तिस पर उस दुराग्रह के सहयोग के लिये मूढ़ता भी आ जाती है। फिर भला उनकी हठवादिता का वर्णन कहाँ तक हो सकता है! जिन क्रियाओं से दूसरों को क्लेश होता है और जिनसे अन्य जीवों की धज्जियाँ उड़ जाती हैं, उन क्रियाओं में इस प्रकार के लोग जन्म से ही अत्यधिक पटु होते हैं। फिर वे लोग ऐसे पराक्रम का स्वयं ही ढिंढोरा पीटते रहते हैं तथा सारे संसार को तुच्छ समझते हैं और दसों दिशाओं में अपनी वासना का जाल फैलाते हैं। जैसे कोई बन्धनमुक्त गौ चतुर्दिक् घूमती रहती है और जो कुछ उसके सामने आता है, वही खाती फिरती है वैसे ही ये आसुरी प्रवृत्ति के लोग भी अपनी स्वेच्छाचार वृत्ति के कारण चतुर्दिक् पापों की ही वृद्धि करते रहते हैं।[1]
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टीका टिप्पडी और संदर्भ
- ↑ (323-329)
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