ज्ञानेश्वरी पृ. 631

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

Prev.png

अध्याय-16
दैवासुर सम्पद्वि भाग योग


एतां दृष्टिमवष्टभ्य नष्टात्मानोऽल्पबुद्धय: ।
प्रभवन्त्युग्रकर्माण:क्षयाय जगतोऽहिता: ॥9॥

ये आसुरी प्रकृति के लोग ईश्वर के विरुद्ध केवल बक-बक करते रहते हैं; पर फिर भी इस बात का पता नहीं चल पाता कि उनके मन में कोई एक बात निश्चितरूप से बैठी है अथवा उनका कोई एक सिद्धान्त है। किंबहुना, ये लोग खुल्लमखुल्ला पाखण्ड खड़ा करके जीवों के देह में नास्तिकता की हड्डी चुभाकर एक गर्हणीय बस्ती खड़ी कर देते हैं। ऐसी दशा में स्वर्ग के लिये आदर-भाव और नरक के भयवाली मनोवृत्ति का अंकुर ही जल जाता है और फिर हे सुहृद्! वे आसुरी स्वभाव के लोग इस गन्दे जल के गड्ढे की तरह देह में उलझकर विषयरूपी दलदल में फँसे हुए दिखायी देते हैं। जैसे किसी सरोवर के सूख जाने पर उसमें रहने वाली मछलियों का मरण निकट देखकर धीवर इत्यादि उस सरोवर के सन्निकट इकट्ठे हो जाते हैं अथवा देहावसान का समय आने पर अनेक प्रकार की व्याधियाँ आ धमकती हैं, जैसे विनाश करने के लिये धूमकेतु का उदय होता है, वैसे ही लोगों का संहार करने के लिये ये आसुरी लोग जन्म लेते हैं। जिस समय अमंगलरूपी बीज बोया जाता है, उस समय उसमें से आसुरी मनुष्यरूपी अंकुर उत्पन्न होते हैं, अपितु इन्हें पाप के चलते-फिरते स्तम्भ ही समझना चाहिये। जैसे अग्नि जब एक बार अपनी ज्वलन क्रिया आरम्भ कर देती है, तब आगे-पीछे कुछ भी नहीं देखती, ठीक वैसे ही ये लोग भी स्वेच्छानुसार नीतिविरुद्ध आचरण करने के समय किसी चीज का कुछ भी विचार नहीं करते पर अब यह भी सुन लो कि अपने उसी गर्हणीय आचरण का वे लोग अभिमानपूर्वक अभिनन्दन करते हैं।” बस, यही बातें लक्ष्मीपति ने पार्थ से कही थीं।[1]

Next.png

टीका टिप्पडी और संदर्भ

  1. (314-322)

संबंधित लेख

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः