ज्ञानेश्वरी पृ. 630

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-16
दैवासुर सम्पद्वि भाग योग

इसी प्रकार लोग कुल और गोत्र की जाँच-परख करके शुभ मुहूर्त में छोटे-छोटे लड़के एवं लड़कियों का विवाह करते हैं। परन्तु यदि विवाह का उद्देश्य एकमात्र सन्तान की उत्पत्ति करना ही हो तो पशु-पक्षी इत्यादि जो प्राणी वर्ग हैं और जिनकी सन्तान की गणना ही नहीं हो सकती वे किस शास्त्रोक्त विधि से विवाह करते हैं? चोरी कर लाया हुआ धन भला किसके लिये हितकर सिद्ध होता है? प्रीतिपूर्वक परायी स्त्री के साथ सम्भोग करने से क्या कोई कोढ़ी हो जाता है? लोग प्रायः कहा करते हैं कि ईश्वर सबका स्वामी है, वही धर्माधर्म के फलों का भोग कराता है और इस लोक में जैसा आचार किया जाता है, वैसा ही भोग परलोक में प्राप्त होता है। पर यदि ये सब सिद्धान्त ठीक मान लिये जायँ तो परलोक कहीं दृष्टिगत ही नहीं होता और न कहीं देवता ही दृष्टिगोचर होते हैं।

अत: ये सारी बातें मिथ्या हैं और फिर जब शुभाशुभ कर्म करने वाले का ही कहीं अस्तित्व नहीं रह जाता तो कर्म-फल का भोग कहाँ रह जाता है? स्वर्गलोक में जैसे इन्द्र उर्वशी के सहवास में स्वयं को धन्य मानता है, वैसे ही नरक में पड़ा हुआ कीट भी स्वयं को धन्य समझता है। इसलिये स्वर्ग और नरक पुण्य तथा पाप से प्राप्त होते हैं यह कथन उक्तिसंगत नहीं है; कारण कि दोनों ही जगहों में कामवासना समानरूप से सन्तुष्ट होती है। जब स्त्री और पुरुष अथवा नर-मादा की संगति कामवासना से होती है, तब समस्त जीवों का जन्म होता है और पारस्परिक लोभ के कारण स्वार्थ-बुद्धि से कामवासना जिनका पोषण करती है, उन्हीं का अन्त में पारस्परिक द्वेष के कारण स्वार्थी कामवासना ही नाश भी करती है। इस प्रकार कामवासना के अलावा इस संसार का अन्य कोई मूलाधार ही नहीं है। बस इसी प्रकार की बकवाद ये आसुरी प्रवृत्ति के लोग किया करते हैं। परन्तु ये बातें बहुत हो चुकीं। ऐसी निन्दनीय तथा घृणित बातें बोलने से वाणी को व्यर्थ कष्ट उठाना पड़ता है।[1]

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टीका टिप्पडी और संदर्भ

  1. (295-313)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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