श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-2
सांख्य योग
भगवान् ने कहा-“हे अर्जुन! सुनो मन में रहने वाली वह प्रबल विषयवासना ही है जो आत्मसुख में विघ्न उत्पन्न करने वाली होती है। जो व्यक्ति सदा सन्तुष्ट रहता है, जिसका अन्तःकरण समाधान से भरा रहता है ऐसे तृप्त जीवात्मा का भी कामना के संग से पतन हो जाता है। जिसकी चाहतें एकदम से समाप्त हो जाती हैं और जिसका मन सदा आत्मसुख में ही निमग्न रहता है उसी पुरुष को स्थितप्रज्ञ जानो।[1]
अनेक प्रकार के दुःख प्राप्त होने पर भी जिसके चित्त मे उद्वेग नहीं उत्पन्न होता और जो सुख के प्रलोभन में नहीं पड़ता, हे अर्जुन! ऐसे मनुष्य में काम और क्रोध निसर्गतः ही नहीं होते और उसका चित्त सदा आत्म-साक्षात्कार से मिलने वाले आनन्द से ओत-प्रोत रहता है, इसलिये उसे भय कभी नहीं सताता। जो सदा ऐसी ही अवस्था में रहे उसी को स्थिर बुद्धि समझो। इस प्रकार का विचारशील मनुष्य संसार-बन्धनों को छोड़कर केवल भेदरहित रहता है।[2]
वह सर्वदा सबके साथ समान आचरण करता है। जैसे पूर्णिमा का चन्द्रमा अपना प्रकाश देते समय ऐसा भेद कभी नहीं करता कि यह उत्तम व्यक्ति है, इसे प्रकाश दो; यह अधम व्यक्ति है, इसे प्रकाश न दो; वैसे ही उसकी समवृत्ति भी सदा भेदरहित रहती है। वह प्राणिमात्र पर समानरूप से सदय रहता है और किसी भी काल में उसके चित्त में अन्तर नहीं होता। कोई अच्छी चीज मिलने पर भी जो मारे आनन्द के फूले नहीं समाता और कोई बुरी बात होने पर भी जो दुःख के चक्कर में नहीं पड़ता, जो हर्ष और शोक से रहित और आत्मज्ञान के आनन्द से परिपूर्ण रहता है, हे धनुर्धर! तुम उसी को स्थितप्रज्ञ जानो।[3] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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