ज्ञानेश्वरी पृ. 63

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-2
सांख्य योग


श्रीभगवानुवाच
प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान् ।
आत्मन्येवात्मना तुष्ट: स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते ॥55॥

भगवान् ने कहा-“हे अर्जुन! सुनो मन में रहने वाली वह प्रबल विषयवासना ही है जो आत्मसुख में विघ्न उत्पन्न करने वाली होती है। जो व्यक्ति सदा सन्तुष्ट रहता है, जिसका अन्तःकरण समाधान से भरा रहता है ऐसे तृप्त जीवात्मा का भी कामना के संग से पतन हो जाता है। जिसकी चाहतें एकदम से समाप्त हो जाती हैं और जिसका मन सदा आत्मसुख में ही निमग्न रहता है उसी पुरुष को स्थितप्रज्ञ जानो।[1]


दु:खेष्वनुद्विग्नमना: सुखेषु विगतस्पृह: ।
वीतरागभयक्रोध: स्थितधीर्मुनिरुच्यते ॥56॥

अनेक प्रकार के दुःख प्राप्त होने पर भी जिसके चित्त मे उद्वेग नहीं उत्पन्न होता और जो सुख के प्रलोभन में नहीं पड़ता, हे अर्जुन! ऐसे मनुष्य में काम और क्रोध निसर्गतः ही नहीं होते और उसका चित्त सदा आत्म-साक्षात्कार से मिलने वाले आनन्द से ओत-प्रोत रहता है, इसलिये उसे भय कभी नहीं सताता। जो सदा ऐसी ही अवस्था में रहे उसी को स्थिर बुद्धि समझो। इस प्रकार का विचारशील मनुष्य संसार-बन्धनों को छोड़कर केवल भेदरहित रहता है।[2]


य: सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम् ।
नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥57॥

वह सर्वदा सबके साथ समान आचरण करता है। जैसे पूर्णिमा का चन्द्रमा अपना प्रकाश देते समय ऐसा भेद कभी नहीं करता कि यह उत्तम व्यक्ति है, इसे प्रकाश दो; यह अधम व्यक्ति है, इसे प्रकाश न दो; वैसे ही उसकी समवृत्ति भी सदा भेदरहित रहती है। वह प्राणिमात्र पर समानरूप से सदय रहता है और किसी भी काल में उसके चित्त में अन्तर नहीं होता। कोई अच्छी चीज मिलने पर भी जो मारे आनन्द के फूले नहीं समाता और कोई बुरी बात होने पर भी जो दुःख के चक्कर में नहीं पड़ता, जो हर्ष और शोक से रहित और आत्मज्ञान के आनन्द से परिपूर्ण रहता है, हे धनुर्धर! तुम उसी को स्थितप्रज्ञ जानो।[3]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (291-293)
  2. (294-296)
  3. (297-300)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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