श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-16
दैवासुर सम्पद्वि भाग योग
यह विश्व अनादि है और इनका नियन्ता एकमात्र ईश्वर है और न्याय तथा अन्याय का निर्णय वेद की कचहरी में होता है। वेद जिन्हें अन्यायी ठहराते हैं, उन्हें नरकभोग का दण्ड मिलता है और वे जिन्हें न्यायी घोषित करते हैं, वे स्वर्ग का सुख भोगते हैं। हे पार्थ! इस प्रकार की इस विश्व की जो अनादि सिद्ध व्यवस्था है, उसे ये आसुरी स्वभाव के लोग एकदम नहीं मानते। वे इन सब बातों को एकदम मिथ्या ठहराते हैं। वे कहते हैं कि मूढ़ याज्ञिक लोग यज्ञों के चक्कर में पड़े रहते हैं, देवताओं के चक्कर में पड़े हुए लोग मूर्ति-पूजन इत्यादि करते रहते हैं और गेरुए वस्त्र पहनने वाले जोगड़े समाधि के भ्रम में फँसे रहते हैं। पर इस संसार में जो कुछ मनुष्य के हाथ लग जाय, उसका उसे अपने साहस के आधार पर भोग करना चहिये। इसके अलावा दूसरा और कौन-सा पुण्य कृत्य हो सकता है? अथवा यदि अपनी असमर्थता के कारण हम भिन्न-भिन्न विषयों का अपने सुखोपभोग के लिये संग्रह न कर सकें और इसी कारण यदि हम विषयसुख के लिये व्याकुल रहते हों तो यही वास्तविक पाप है। यह ठीक है कि धनाढ्य व्यक्तियों की हत्या करना पाप है; पर उनका समस्त वैभव, जो हमारे हाथ लगता है, वह क्या पुण्य का फल नहीं है? यदि यह कहा जाय कि शक्तिशालियों का दुर्बलों को खाना निषिद्ध है, तो देखो कि सभी बड़ी-बड़ी मछलियाँ छोटी-छोटी मछलियों को निगल जाती हैं। पर फिर भी वे बड़ी मछलियाँ निःसंतान क्यों नही होतीं? |
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