ज्ञानेश्वरी पृ. 628

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-16
दैवासुर सम्पद्वि भाग योग


प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च जना न विदुरासुरा: ।
न शौचं नापि चाचारो न सत्यं तेषु विद्यते ॥7॥

पुण्य कृत्यों में प्रवृत्ति होनी चाहिये और पाप कृत्यों से निवृत्ति होनी चाहिये-इस प्रकार के विचार के सम्बन्ध में उसके मन में निबिडान्धकार भरा रहता है। जैसे कोये में स्थित रेशम का कीड़ा न तो उसके बाहर निकलने का ही विचार करता है और न कहीं अन्दर जाने का ही, बल्कि यत्र-का-तत्र ही बन्द पड़ा रहना चाहता है अथवा जैसे कोई मूढ़ व्यक्ति अपनी सारी दौलत किसी चोर के हवाले कर देता है और यह जरा-सा भी विचार नहीं करता कि चोर के हवाले की गयी सम्पत्ति मुझे पुनः वापस मिलेगी अथवा नहीं, ठीक वैसे ही आसुरी स्वभाव के लोग प्रवृत्ति और निवृत्ति का जरा-सा भी विचार नहीं करते और शुचित्व का दर्शन तो वे स्पप्न में भी नहीं करते। हो सकता है कि कोयला कभी अपनी कालिमा त्याग दे, कौआ भी कदाचित् श्वेतवर्ण का हो जाय तथा राक्षस अपना मन मांस की ओर से कभी हटा ले, पर ये आसुरी प्राणी कभी शुचिता को अंगीकार नहीं करते।

मद्यपात्र जैसे कभी पवित्र नहीं हो सकता वैसे ही हे पार्थǃ इस प्रकार के लोग भी कभी पवित्र नहीं हो सकते। शास्त्रविहित विधि-विधानों के प्रति अनुराग अथवा बड़ों का अनुकरण करने की इच्छा अथवा शुद्धाचार की बात कभी उनके यहाँ हो ही नहीं सकती। जैसे बकरी चतुर्दिक् स्वेच्छानुसार चरती रहती है अथवा वायु मनमाना इधर-उधर बहती रहती है अथवा अग्नि को जो कुछ भी मिलता है उसे वह जलाकर राख कर देता है, वैसे ही ये आसुरी प्रकृति के लोग भी कुमार्ग में निरन्तर आगे ही बढ़ते जाते हैं और अनवरत नंगे होकर नृत्य करते हैं तथा सत्य के साथ सदा शत्रुभाव रखते हैं। यदि बिच्छू कभी अपने डंक से सिर्फ गुदगुदा सकता हो, तभी ये आसुरी प्रवृत्ति के लोग भी सत्य बात कह सकते हैं अथवा यदि अपान वायु में से कभी सगुन्ध निकल सकती हो, तभी इन आसुरी स्वभाव वालों में सत्य भी दृष्टिगत हो सकता है, और फिर ऐसे लोग इस प्रकार का काम करें अथवा न करें तो भी वे स्वभावतः बुरे होते हैं। अब मैं उनकी बातों की कुछ विलक्षणता तुम्हें बतलाता हूँ। वास्तव में ऊँट के शरीर का ऐसा कौन-सा अवयव है जो अच्छा कहा जा सके? ठीक वही हाल इन आसुरी प्रवृत्ति वालों की भी है। किन्तु प्रसंगानुसार मैं तुम्हें इनकी कुछ बातें बतला देता हूँ; सुनो। जैसे धूम्र निःसारण करने वाली चिमनी के मुख से निरन्तर धूम्र के भभके ही निकलते हैं, ठीक वैसे ही इन लोगों के मुख से अपशब्द ही निकलते हैं।[1]


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टीका टिप्पडी और संदर्भ

  1. (281-294)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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