श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-16
दैवासुर सम्पद्वि भाग योग
इन आसुरी दोषों में जिसकी शक्ति का ढिंढोरा खूब जोरों से पीटा जाता है, उस दम्भ का स्वरूप मैं तुमको बतलाता हूँ। हे पार्थ! यह ठीक है कि अपनी माता एकमात्र तीर्थस्वरूपिणी ही होती है; पर यदि हम उसे नग्नावस्था में सबके समक्ष प्रस्तुत करें तो वह हमारे अधःपतन का ही कारण होती है अथवा गुरुपदिष्ट विद्याएँ यद्यपि इष्ट फलदात्री होती हैं, पर यदि किसी चतुष्पथ पर खड़े होकर उनका घोष किया जाय तो ये भी अनिष्टकारक ही होती हैं अथवा जिस समय हम डूबने लगते हैं, उस समय जो नाव हमें सुरक्षित किनारे तक पहुँचाने का साधन होती है, उसी नाव को यदि हम अपने सिर से बाँध लें तो वह हमें डुबाने का ही कारण होती है। हे पाण्डुसुत! निःसन्देह अन्न ही जीवन का आधार है, पर यदि हम उसे आवश्यकता से अधिक खा जायँ तो वही अन्न हमारे लिये विष हो जाता है। इसी प्रकार जो धर्मलोक और परलोक में भी हमारा सँघाती होता है, यदि उसी धर्म का आचरण करके हम अहंकारपूर्वक यह घोषणा करने लग जायँ कि हम धर्म का आचरण करते हैं, तो वह तारक धर्म भी हमारे लिये दोष का साधन बन जाता है। इसलिये हे धनुर्धर! यदि हम अपने द्वारा सम्पादित धार्मिक कृत्यों का शाब्दिक आडम्बर चतुर्दिक् फैलाने लगें तो वह धर्म भी अधर्म हो जाता है और इसी प्रकार की करनी को ‘दम्भ’ नाम से पुकारते हैं। अब मैं ‘दर्प’ के सम्बन्ध में बतलाता हूँ, सुनो। जैसे मूर्ख की जिह्वा पर चार अक्षरों के छींटे पड़ते ही वह तत्त्व-ज्ञानियों की सभा की भी निन्दा करने लगता है अथवा जैसे अस्तबल में स्थित घोड़ा अपने सामने ऐरावत को भी तुच्छ समझने लगता है, जैसे किसी काँटेदार झाड़ी के शिखर पर चढ़ा हुआ गिरगिट स्वर्ग को भी तुच्छ समझने लगता है अथवा यदि ईंधन के साथ घास-फूस भी आ जाय तो अग्नि की लपटें जैसे आकाश की ओर उठने लगती हैं, तथा किसी गड़ढे का सहारा पाकर मछली सागर को भी तुच्छ समझने लगती है, वैसे ही स्त्री, धन, विद्या, स्तुति और मान प्राप्त करके व्यक्ति भी मदान्ध हो जाता है। |
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