ज्ञानेश्वरी पृ. 622

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-16
दैवासुर सम्पद्वि भाग योग

अपितु यह कहना चाहिये कि वह अहर्निश दूसरों का सुख अधिक-से-अधिक बढ़ाता हुआ प्रकारान्तर से अपना ही उल्लू सीधा करता है। सिर्फ यही नहीं, अपना काम बनाने के लिये किसी जीव की बुराई करने की कल्पना भी कभी उसके चित्त में उत्पन्न होकर उसका मार्गाबरोधक नहीं होती। हे किरीटी! अभी जो यह सब तुमने सुना है, वह सब अद्रोह के लक्षण हैं और जिस प्रकार मैंने ये लक्षण तुम्हें बतलाये हैं, उसी प्रकार ये तुम्हें उस व्यक्ति में स्पष्ट दृष्टिगत होंगे जिसमें अद्रोह होगा। हे पार्थ! जैसे गंगा शंकर के मस्तक पर पहुँच कर संकुचित हो गयीं, वैसे ही मान की प्राप्ति होने पर जो संकुचित होता है, उसी के विषय में यह जानना चाहिये कि उसमें अमानित्व नामक गुण विद्यमान है।

हे अर्जुन! यह बात तुम अनवरत अपने ध्यान में रखो। ये समस्त बातें पहले भी बतलायी जा चुकी हैं, इसीलिये अब वही फिर क्यों दोहरायी जायँ? इस प्रकार ये छब्बीस गुण हैं, जो दैवी सम्पत्ति से सम्बन्धित हैं। ये मानो मोक्षरूपी राज्य के राजा के ताम्र पट के अनुसार दी हुई जागीरें ही हैं अथवा यह समझना चाहिये कि यह दैवी सम्पत्ति मानों गुणरूपी जल से सदा भरपूर रहने वाली गंगा ही वैराग्यरूपी सगर पुत्रों के शरीरों पर पड़ी हुई है अथवा यह दैवी सम्पत्ति मानो सद्गुणरूपी पुष्पों की माला है और ऐसा प्रतीत होता है कि मुक्तिरूपी वधू वही माला विरक्तों के गले में डाल रही है अथवा इन छब्बीस गुणों की बत्ती जलाकर यह गीता नामक पत्नी अपने आत्माराम नामक पति की आरती कर रही है। ये गुण मानों गीतारूपी सिन्धु से निकाली हुई दैवी सम्पत्तिरूपी सीपियों के निर्मल और सच्चे मोतियों के दाने ही हैं। ऐसी दशा में भला इनका यथातथ्य वर्णन किस प्रकार किया जा सकता है? इनका अनुभव तो स्वतः ही होता रहता है। इस प्रकार गुणों के आगार इस दैवी सम्पत्ति का वर्णन हुआ। आसुरी सम्पत्ति यद्यपि दुःखों के दोषरूपी काँटों से भरी हुई बेल के ही तरह है, फिर भी प्रसंगानुसार उसका भी वर्णन कर दिया जाता है। यदि गर्हणीय वस्तु का परित्याग करना हो तो यह जानना भी अत्यावश्यक होता है कि वह गर्हणीय चीज कौन-सी है। इसलिये यद्यपि यह आसुरी सम्पत्ति अनिष्ट है तो भी इसका स्वरूप मनोयोगपूर्वक सुनना बहुत ही समीचीन है। अधोगति के दुःख अपने पल्ले में बाँधने के लिये घोर पातकों ने मिलकर जो संग्रह किया है, वही यह आसुरी सम्पत्ति है अथवा जैसे समस्त विषवर्ग के समूह का नाम कालकूट है, वैसे ही समस्त पापों के समूहों का नाम आसुरी सम्पत्ति है।[1]

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टीका टिप्पडी और संदर्भ

  1. (186-216)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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