ज्ञानेश्वरी पृ. 621

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-16
दैवासुर सम्पद्वि भाग योग


तेजः क्षमा धृतिः शौचमद्रोहो नातिमानिता।
भवन्ति सम्पदं दैवीमभिजातस्य भारत।।3।।

यदि ईश्वर-प्राप्ति के लिये ज्ञान के मार्ग में कदम रखते समय मन में दृढ़ निश्चय हो गया हो तो फिर धैर्य की कमी नहीं होती। एक तो मृत्यु वैसे ही भयंकर होती है, तिस पर अग्नि में जलकर मरना तो और भी अधिक भयंकर होता है। लेकिन इतना होने पर भी पतिव्रता उस पर जलकर मरने की भी परवाह नहीं करती। ठीक इसी प्रकार आत्मप्राप्ति की अग्नि के विषयरूपी विष को जीव भस्म कर निकाल डालता है और तब शून्य की ओर जाने वाले योग-साधन के विकटमार्ग पर जल्दी आगे बढ़ने लगता है। फिर किसी प्रकार का निषेध उसके मार्ग में बाधक नहीं होता। वह न तो विधि को ही मानता है और न तो महासिद्धियों के मोहपाश में ही पड़ता है। इस प्रकार अपनी आन्तरिक प्रेरणा से ईश्वर की ओर बढ़ने को ‘आध्यात्मिक तेज’ कहते हैं।

यदि व्यक्ति में इस प्रकार का अहंकार न हो कि समस्त धैर्यशालियों में एक मात्र मैं ही सर्वश्रेष्ठ हूँ, तो इसी को ‘क्षमा’ जानना चाहिये। देह पर सहस्रों रोम होते हैं, पर उनका भार सहन करने पर भी देह को कभी उनका भान भी नहीं होता। यदि इन्द्रियाँ कुमार्गगामी हो जायँ अथवा देहस्थ कोई जीर्ण व्याधि एकदम से उभड़ पड़े अथवा प्रियजनों को अकस्मात् वियोग हो जाय और अप्रिय के साथ काम पड़े अथवा इसी प्रकार के अन्य किसी अनिष्ट चीजों की एक ही समय वहाँ बाढ़ भी आ जाय तो भी अगस्त-ऋषि की तरह सीना तानकर उसके समक्ष निश्चलभाव से खड़े रहना और हे पाण्डव! यदि आधिदैविक, आधिभौतिक और आध्यात्मिक- तीनों प्रकार के ताप आकर खड़े हों तो उन सबको ठीक वैसे ही अति तुच्छ समझकर अपने सामने से हटा देना, जैसे आकाश में उड़ने वाली धूएँ की रेखा को वायु एक ही झोंके में उड़ा देती है और चित्त को अस्थिर करने वाले ऐसे ही विकट प्रसंग के आ पड़ने पर भी धैर्य न त्यागकर भली-भाँति उसके मुकाबले में डँटे रहने का नाम ही ‘धृति’ है। अब मैं ‘शौच’ के सम्बन्ध में बतलाता हूँ। ‘शौच’ सोने का मुलम्मा चढ़ा-चढ़ाकर स्वच्छ किये हुए गंगाजल से भरे हुए कलश की भाँति है, कारण कि देह के द्वारा निष्काम कर्मों का होना तथा जीव का विवेकानुसार आचरण करना सब शुचित्व के ही ऊपर से दृष्टिगत होने वाले ये लक्षण हैं अथवा जैसे गंगाजल भूतमात्र के सन्ताप का शमन करता है और अपने तट पर स्थित वृक्षों का पोषण करता हुआ समुद्र की ओर प्रस्थान करता है अथवा जैसे सूर्य संसार का तिमिर भगाता हुआ और सम्पत्ति के मन्दिरों के द्वार खोलता हुआ आकाश की परिक्रमा करने के लिये निकलता है वैसे ही वह भी बन्धन में पड़े हुए लोगों को मुक्त करता है, डूबते हुए लोगों को बाहर निकालता है और दुःखीजनों के दुःख का निवारण करता है।

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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