श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-16
दैवासुर सम्पद्वि भाग योग
अब मैं तुमको यह बतलाता हूँ कि ‘मार्दव’ किसे कहते हैं। मधुमक्खियों के लिये जैसे शहद का छत्ता अथवा जलचरों के लिये जल अथवा पक्षियों के लिये खुला आकाश अथवा बालक के लिये माता का प्रेम अथवा वसन्त के स्पर्श से कोमल होने वाली मलय वायु अथवा नेत्रों के लिये प्रियजनों के दर्शन अथवा अपने बच्चों के लिये जैसे कच्छपी की दृष्टि होती है, वैसे ही मार्दवगुण-सम्पन्न व्यक्ति का प्राणिमात्र के साथ अत्यन्त मृदु तथा प्रेमपूर्ण व्यवहार होता है। जो कपूर छूने में अत्यन्त कोमल, खाने में बहुत ही स्वादिष्ट, घ्राणेन्द्रिय के लिये अत्यन्त सुगन्धित तथा देखने में अत्यन्त निर्मल होता है, वह अभीष्ट मात्रा में मिल जाता है। वह यदि विषाक्त न होता और उसकी विषाक्तता बीच में बाधक न होती, तो वह अपनी मृदुता और निर्मलता के कारण मार्दवगुणयुक्त व्यक्ति की कोमलता की बराबरी कर सकता। गगन जैसे महाभूतों को भी अपने पेट में रखता है तथा परमाणुओं में भी समाया रहता है और विश्वानुरूप ही अपना आकार भी बना लेता है, हे पार्थ! मैं और अधिक क्या कहूँ, ठीक उसी गगन की भाँति समस्त जगत् के जीवों और प्राणियों के लिये जीता है उसे ही मैं ‘मार्दव’ नाम से सम्बोधित करता हूँ। अब मैं ‘लज्जा’ गुण का लक्षण बतलाता हूँ, सुनो। जैसे पराजित होने पर कोई राजा मारे लज्जा के मुँह नहीं दिखला सकता अथवा अपमान के कारण जैसे प्रतिष्ठित व्यक्ति तेजहीन हो जाता है अथवा जैसे भूल से किसी चाण्डाल के घर में जा पहुँचने पर किसी संन्यासी को अत्यधिक लज्जा जान पड़ती है अथवा युद्धभूमि से क्षत्रिय का पलायन जैसे लज्जास्पद होता है और उसे कोई सहन नहीं कर सकता अथवा पतिव्रता के लिये जैसे वैधव्य का आमन्त्रण अत्यन्त कष्ट कारक और असह्य होता है |
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