ज्ञानेश्वरी पृ. 618

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-16
दैवासुर सम्पद्वि भाग योग

देखो, जगत् में जल-जैसा पदार्थ भी स्वयं विनष्ट हो जाता है; पर मरती हुई वनस्पतियों को वह हरा-भरा कर देता है। ठीक इसी प्रकार दयालु व्यक्ति के मन में दूसरे व्यक्तियों के दुःख को देखकर करुणा का इतना प्राबल्य होता है कि उनके दुःखों का निवारण करने के लिये यदि वे अपना सब कुछ दाँव पर लगा दें तो वह उन्हें अत्यल्प ही जान पड़ता है। जब प्रवाहमान जल को रास्तें में कोई गड्ढा इत्यादि मिलता है, तब वह उसे बिना भरे एक पग भी आगे नहीं बढ़ता। ठीक इसी प्रकार दयालु व्यक्ति भी अपने सम्मुख आने वाले दीन व्यक्ति को संतुष्ट करके ही आगे कदम बढ़ाता है। जैसे पाँव में काँटा चुभने पर उसकी पीड़ा के चिह्न चेहरे पर प्रकट होते हैं, वैसे ही दूसरों के दुःख देखकर वह भी अपने देह में क्लेश का बोध करता है। जैसे पाँव में ठंडक पहुँचने पर उसकी तरावट आँखों तक पहुँचती है, वैसे ही वह भी दूसरों को सुखी देखकर स्वयं सुखी होता है। आशय यह है कि जैसे पिपासित व्यक्ति को प्यास बुझाने के लिये जगत् में जल की सृष्टि हुई है, वैसे ही दुःख से संतप्त प्राणियों के कल्याण के लिये ही जिसका जीवन होता है, हे वीर शिरोमणि! वह व्यक्ति मूर्तिमान् दया ही होता है। मैं उसका जन्म से ही ऋणी होता हूँ। अब मैं तुमको ‘भूतेष्वलोलुप्त्वम्’ के बारे में बतलाता हूँ; सुनो।

कमल की अनुरक्ति सूर्य के प्रति चाहे कितना ही क्यों न हो, पर फिर भी सूर्य कभी उसकी सुगन्ध को स्पर्श नहीं करता अथवा वसन्त के मार्ग में चाहे कितनी ही अधिक वनश्री क्यों न हो, तो भी वह उस वनश्री को स्वीकार नहीं करता तथा निरन्तर आगे बढ़ता जाता है। फिर इतनी सब बातें किस लिये कही जायँ? यदि महासिद्धियों के समेत स्वयं लक्ष्मी ही क्यों न निकट आ जायँ, पर फिर भी महाविष्णु के लिये वह किसी गिनती में नहीं होती। ठीक इसी प्रकार लौकिक अथवा पारलौकिक विषय-सुख चाहे उसकी इच्छा के दास ही क्यों न बन जायँ, फिर भी अलोलुप व्यक्ति कभी भी उन सुखों को भोगने का विचार अपने मन में नहीं करता। किंबहुना, जिस अवस्था में जीव के मन में कुतूहल से भी विषयों की अभिलाषा नहीं रह जाती, उसी अवस्था को ‘अलोलुप्त्व’ जानना चाहिये।

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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