श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-16
दैवासुर सम्पद्वि भाग योग
यह बात सुनकर परम सौभाग्यशाली अर्जुन ने कहा- “हे देव! अब आप मुझे शान्ति का लक्षण स्पष्ट रूप से बतलावें।” तब भगवान् ने कहा- “बहुत अच्छा, तुमने बहुत ही सुन्दर बात पूछी है, सो सुनो। ज्ञेय को नष्ट करके जब ज्ञाता और ज्ञान भी लय को प्राप्त हो जाते हैं, तब जो स्थिति उत्पन्न होती है, उसी को लोग ‘शान्ति’ कहते हैं। जैसे प्रलय काल का जल सारे विश्व को जलमग्न कर विश्व का नामोनिशान भी मिटा देता है और चतुर्दिक् केवल जल-ही-जल रहता है तथा इस प्रकार का भेद-दर्शक भाषा व्यवहार में हो ही नहीं सकता कि यह नदी का उद्गम है, यह प्रवाह है और यह समुद्र है और जिधर दृष्टि डालो, उधर एक-सा जल ही फैला हुआ दृष्टिगत होता है, पर उस समय भी क्या उसका ज्ञान प्राप्त करने के लिये उससे भिन्न कोई रहता है? कोई नहीं रहता। ठीक इसी प्रकार जिस समय ज्ञेय के साथ आलिंगन होने पर तन्मयता हो जाती है, उस समय ज्ञातृत्व का भी नामोनिशान मिट जाता है। फिर जो कुछ अवशिष्ट रह जाता है, हे किरीटी! उसी का नाम ‘शान्ति’ है। अब मैं तुम्हें अपैशुन्य के बारे में बतलाता हूँ, ध्यानपूर्वक सुनो। जिस समय व्याधिग्रस्त व्यक्ति किसी व्याधि से अत्यधिक क्लेश पता है, उस समय उसे व्याधिमुक्त करने की चिन्ता में चतुर वैद्य यह नहीं देखता कि यह मेरा शत्रु है अथवा जब दलदल में फँसी हुई गाय दिखायी देती है, तब देखने वाला इस बात का विचार नहीं करता कि वह दूध देती है अथवा नहीं और वह उस गाय का दुःख देख कर ही व्याकुल हो जाता है अथवा जिस समय कोई व्यक्ति जलाशय में डूबने लगता है, उस समय व्यक्ति यह नहीं सोचता कि यह ब्राह्मण है अथवा अन्त्यज है और यही समझता है कि इसके प्राण बचाना ही मेरा कर्तव्य है अथवा जिस समय कोई चाण्डाल दैवयोग से वन में मिलने वाली स्त्री को निर्वस्त्र करके तथा उसके कपड़े छीनकर उसे छोड़ देता है, उस समय सभ्य व्यक्ति तब तक उस स्त्री पर दृष्टि नहीं डालता, जब तक वह उसे फिर से वस्त्र नहीं पहना लेता। |
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