ज्ञानेश्वरी पृ. 615

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-16
दैवासुर सम्पद्वि भाग योग

परन्तु बालक के अपराध करने पर जो ऊपर से तो क्रोध प्रदर्शित करती है किन्तु इसका लालन-पालन करने में जो पुष्प से भी अधिक मृदु होती है, उस माता के स्वरूप की तरह जो वचन कर्ण प्रिय न होने पर भी अन्ततः ठीक और अच्छा सिद्ध होता है तथा जो बुरे विकारों से लिप्त नहीं होता है, उस वचन को ही इस सन्दर्भ में सत्य जानना चाहिये। पाषाण में चाहे कितना ही जल क्यों न डाला जाय, किन्तु उसमें कभी अंकुर प्रस्फुटित नहीं होता अथवा माड़ को चाहे कितना ही क्यों न मथा जाय, पर उसमें से कभी मक्खन नहीं निकलता अथवा यदि सर्प की केंचुली पर चरण प्रहार किया जाय तो भी वह केंचुली जैसे कभी काटने के लिए नहीं दौड़ती अथवा वसन्त काल होने पर भी आकाश में जैसे कभी फल नहीं लगते अथवा रम्भा के सौन्दर्य को देख कर भी शुकदेवजी के मन में जैसे कभी कामवासना का संचार नहीं हुआ था अथवा जो अग्नि एकदम शान्त हो जाती है, वह जैसे घृत डालने से पुनः नहीं जलती, ठीक वैसे ही यदि कितनी ही इस प्रकार की बातें क्यों न कहें जिन्हें श्रवण करते ही अनजान बालक भी क्रोधाविष्ट हो जाय, तो भी हे अर्जुन! जैसे स्वयं ब्रह्मदेव के पैरों पर पड़ने से भी मृत व्यक्ति जीवन धारण नहीं कर सकता, ठीक वैसे ही मन की जो अवस्था होती है तथा जिसमें क्रोध कभी उत्पन्न ही नहीं होता, उसी को ‘अक्रोध’ नाम से सम्बोधित करते हैं।” इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन से यही सब बातें उस समय कही थी।

तदनन्तर भगवान् लक्ष्मी पति कहते हैं- “अब यदि मृत्तिका का परित्याग कर दिया जाय तो घड़े का, सूत का परित्याग कर दिया जाय तो वस्त्र का, बीज का परित्याग कर दिया जाय तो वृक्ष का, दीवार का परित्याग कर दिया जाय तो सारे चित्र का, निद्रा का परित्याग कर दिया जाय तो उसमें दृष्टिगोचर होने वाले सारे स्वप्न-जल का, जल का परित्याग कर दिया जाय तो तरंगों का, वर्षा काल का परित्याग कर दिया जाय तो मेघों का तथा धन का परित्याग कर दिया जाय तो विषय-भोगों का स्वतः परित्याग हो जाता है। ठीक इसी प्रकार बुद्धिमान् लोग देहात्मबुद्धि का परित्याग कर समस्त प्रपंचात्मक विषयों को दूर भगा देने को ही त्याग-नाम से पुकारते हैं।”

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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