श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-16
दैवासुर सम्पद्वि भाग योग
जगत् को सुख प्रदान करने के उद्देश्य से ही शरीर से, वाणी से और मन से व्यवहार करने को ‘अहिंसा’ कहते हैं। मोगरे की कली जैसे अत्यन्त छोटी होने पर भी कोमल होती है अथवा चन्द्रमा का प्रकाश जैसे तेजवान् होने पर भी शीत गुण युक्त होता है, ठीक वैसे ही जो व्याख्यान सूक्ष्म और तेजस्वी होने पर भी कोमल तथा शीतल होता है, यही सत्य है। जब ऐसी औषधि कहीं न मिलती हो, जिसके दर्शनमात्र से ही व्याधि का निवारण हो जाता है और जो स्वाद में कटु भी न लगे, तो फिर ऐसी वस्तु भला कहाँ से मिल सकती है, जिसके साथ सत्य की सटीक उपमा दी जा सके? पर यदि जल का छींटा नेत्र पर डाला जाय, तो वह अपनी कोमलता के कारण नेत्र को जरा-सा भी क्लेश नहीं पहुँचाता, पर वही जल पर्वतों को भी तोड़कर अपना रास्ता प्रशस्त ही कर लेता है। ठीक इसी प्रकार भ्रम और मोह को तोड़ने के लिये जो लौह-सदृश कठोर होता है, पर श्रवणेन्द्रियों को माधुर्य से भी मधुर लगता है, जिसे श्रवण के समय ऐसा प्रतीत होता है कि कर्ण को मानो मुख निकलते जा रहे हैं, पर जो अपनी सत्यता की सामर्थ्य से ब्रह्मतत्त्व का भी स्पष्टीकरण करता है, आशय यह कि जो प्रिय और मधुर होने पर भी किसी की वंचना नहीं करता तथा सत्य होने पर भी किसी को बुरा नहीं लगता, नहीं तो शिकारी का गाना श्रवणेन्द्रियों को तो मधुर लगता है, पर हरिणी के लिये यह जान लेवा साबित होता है अथवा अग्नि अपना शुद्धि करण का काम तो ठीक तरह करती है, परन्तु ऐसा करते समय वह जलाकर भस्म भी कर देती है- ठीक इसी प्रकार जो वाणी श्रवणेन्द्रियों को तो मधुर लगती है, पर अपने अर्थ से हृदय को विदीर्ण भी कर देती है, उसे कभी सुन्दर नहीं कहा जा सकता। उसे तो राक्षसी ही कहना उचित है। |
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |