ज्ञानेश्वरी पृ. 613

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-16
दैवासुर सम्पद्वि भाग योग

अब तुम ‘तप’ का लक्षण सुनो। अपना सर्वस्व दान कर डालना ही अपने सर्वस्व को सार्थक करना है, जैसे बीज निकलने पर वनस्पतियाँ स्वतः सूख जाती हैं अथवा धूप जैसे अग्नि में जलकर सुगन्ध बिखेरता है अथवा जैसे मिलावट का अंश नष्ट हो जाने पर स्वर्ण वजन में कम हो जाता है अथवा चन्द्रमा जैसे कृष्ण पक्ष की वृद्धि करता हुआ स्वयं क्षीण हो जाता है, ठीक वैसे ही आत्मस्वरूप की प्राप्ति के लिये अपने प्राण, इन्द्रियों तथा देह को सुखा डालने का नाम ही ‘तप’ है। अब तप के और भी अनेक प्रकार बतलाये जाते हैं। पर जैसे हंस जल को पृथक् करके अपनी चोंच को दूध निकाल लेने के काम में लगाता है, ठीक वैसे ही देह और जीव का संयोग होने पर उनमें से देह-भाव तथा जीव-भाव को चुनकर पृथक् कर लेने का काम जिस विवेक के द्वारा सम्पन्न होता है, उस विवेक को निरन्तर अपने अन्तःकरण में जाग्रत् रखना चाहिये। आत्मावलोकन करते समय बुद्धि हैरान हो जाती है। उस समय जैसे जागर्ति होने पर निद्रा सहित स्वप्न का भी अवसान हो जाता है, ठीक वैसे ही जो व्यक्ति आत्म दर्शनार्थ विवेकपूर्वक व्यवहार करता है, हे धनुर्धर! उसी से इस तप का साधन होता है। अब जैसे बच्चे के कल्याण के लिये ही माता के स्तन में यथा समय दूध उत्पन्न होता है अथवा जीवमात्र के अनेक प्रकार होने पर भी जैसे चैतन्य सब में समानरूप से विराजमान रहता है, वैसे ही समस्त जीवों के मधुर और सौजन्यपूर्ण व्यवहार करना ही आर्जव (सरलता) कहलाता है।[1]

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टीका टिप्पडी और संदर्भ

  1. (68-113)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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