श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-16
दैवासुर सम्पद्वि भाग योग
अब तुम ‘तप’ का लक्षण सुनो। अपना सर्वस्व दान कर डालना ही अपने सर्वस्व को सार्थक करना है, जैसे बीज निकलने पर वनस्पतियाँ स्वतः सूख जाती हैं अथवा धूप जैसे अग्नि में जलकर सुगन्ध बिखेरता है अथवा जैसे मिलावट का अंश नष्ट हो जाने पर स्वर्ण वजन में कम हो जाता है अथवा चन्द्रमा जैसे कृष्ण पक्ष की वृद्धि करता हुआ स्वयं क्षीण हो जाता है, ठीक वैसे ही आत्मस्वरूप की प्राप्ति के लिये अपने प्राण, इन्द्रियों तथा देह को सुखा डालने का नाम ही ‘तप’ है। अब तप के और भी अनेक प्रकार बतलाये जाते हैं। पर जैसे हंस जल को पृथक् करके अपनी चोंच को दूध निकाल लेने के काम में लगाता है, ठीक वैसे ही देह और जीव का संयोग होने पर उनमें से देह-भाव तथा जीव-भाव को चुनकर पृथक् कर लेने का काम जिस विवेक के द्वारा सम्पन्न होता है, उस विवेक को निरन्तर अपने अन्तःकरण में जाग्रत् रखना चाहिये। आत्मावलोकन करते समय बुद्धि हैरान हो जाती है। उस समय जैसे जागर्ति होने पर निद्रा सहित स्वप्न का भी अवसान हो जाता है, ठीक वैसे ही जो व्यक्ति आत्म दर्शनार्थ विवेकपूर्वक व्यवहार करता है, हे धनुर्धर! उसी से इस तप का साधन होता है। अब जैसे बच्चे के कल्याण के लिये ही माता के स्तन में यथा समय दूध उत्पन्न होता है अथवा जीवमात्र के अनेक प्रकार होने पर भी जैसे चैतन्य सब में समानरूप से विराजमान रहता है, वैसे ही समस्त जीवों के मधुर और सौजन्यपूर्ण व्यवहार करना ही आर्जव (सरलता) कहलाता है।[1] |
टीका टिप्पडी और संदर्भ
- ↑ (68-113)
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