श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-16
दैवासुर सम्पद्वि भाग योग
अब मैं तुम्हें यज्ञ अथवा याज्ञ का अथ बतलाता हूँ, सुनो। एक ओर तो गिनती में सबसे पहले गिने जाने वाले ब्राह्मण होते हैं और दूसरी ओर सबके अन्त में स्त्रियाँ इत्यादि होती हैं। उन दोनों के बीच में अपने वर्ण-धर्म के अधिकार के अनुसार उनमें से हर एक अपने लिये उचित तथा देव-धर्म के मार्ग का अनुसरण करता है। इनमें से शास्त्रोक्त विधि से षट्कर्म करने वाले ब्राह्मण तथा उनको नमन करने वाले शूद्र दोनों ही समानरूप से अपने-अपने आचारों का पालन करते हैं और इस प्रकार वे लोग यज्ञ सम्पादन करते हैं तथा उन यज्ञों का उन्हें समानरूप से फल प्राप्त होता है। इस प्रकार अपने अधिकारनुरूप यज्ञों का सम्पादन करना सबका कर्तव्य होना चाहिये। परन्तु यज्ञ करते समय इस बात का ध्यान अवश्य रखना चाहिये कि फलाशा के विष से वे यज्ञ विषाक्त न हों और देहाभिमान से अपने मन में ऐसी अहंभावना नहीं उत्पन्न होने देनी चाहिये कि हम कर्ता हैं। साथ-ही-साथ समस्त लोगों को वेदाज्ञा का पालन करना चाहिये। हे अर्जुन! सर्वत्र यज्ञ-शब्द का यही भाव रहता है। ऐसा यज्ञ मोक्षमार्ग में एक सुविज्ञ सुहृद् का काम करता है। गेंद को जमीन पर पटकने का उद्देश्य जमीन को मारने के लिये नहीं होता, अपितु इसलिये पटका जाता है कि वह फिर लौटकर हमारे हाथ में आ जाय अथवा खेत में जो बीज फेंके जाते हैं, उनका भी उद्देश्य बीज फेंकना नहीं बल्कि उनसे और अधिक फसल प्राप्त करना होता है। जैसे अँधेरे में रखी हुई वस्तु को ढूँढ़ने के लिये दीपक को आदरपूर्वक ग्रहण किया जाता है अथवा वृक्ष की शाखाओं-प्रशाखाओं को मजबूत बनाने के लिये उसके मूल में जल डाला जाता है अथवा यदि संक्षेप में कहा जाय तो जैसे स्वयं ही अपना मुख देखने के लिये दर्पण को ठीक तरह साफ किया जाता है, वैसे ही वेदों के प्रतिपाद्य विषय ईश्वर के स्वरूप का सम्यक् ज्ञान प्राप्त करने के लिये श्रुतियों का अनवरत अभ्यास अथवा अध्ययन करना परमावश्यक होता है। ब्रह्मसूत्र ब्राह्मणों के लिये तथा अन्य वर्णों के लिये अपने-अपने अधिकारानुसार स्तोत्र इत्यादि पढ़ना अथवा नाम मन्त्र का जप करना ही शुद्ध चैतन्य की प्राप्ति के लिये यथेष्ट है। हे पार्थ! इसी का नाम स्वाध्याय है। |
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