ज्ञानेश्वरी पृ. 611

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-16
दैवासुर सम्पद्वि भाग योग

आत्मप्राप्ति के लिये ज्ञानयोग में अपने सामर्थ्य से स्थिर रहने तथा उस स्थिति में चित्तवृत्ति को पूर्णतया छोड देने को ही ज्ञानयोग की व्यवस्थिति कहते हैं। जैसे यज्ञाग्नि में निष्कामभाव से पूर्णाहुति डाली जानी चाहिये अथवा जैसे कुलीन व्यक्ति को चाहिये कि वह कुलीन को ही अपनी कन्या दे अथवा जैसे लक्ष्मी एकमात्र श्रीमुकुन्द में ही अनन्यभाव से रमण करती हैं, ठीक वैसे ही सारे संकल्प-विकल्पों का परित्याग कर निश्चितरूप से योग तथा ज्ञान में ही जीवन-वृत्ति लगाने को श्रीकृष्णनाथ तृतीय गुण यानी ज्ञानयोग-व्यवस्थिति कहते हैं। यदि अपना परमशत्रु भी संकटापन्न स्थिति में हो तो उसे देखकर तन, मन, वचन और धन से सहायता किये बिना न रहना और हे धनंजय! यदि कोई आर्त व्यक्ति हमारे सन्निकट आवे तो उसकी सहायता में अपना धन-धान्य इत्यादि सब कुछ ठीक वैसे ही अन्तःकरणपूर्वक लगा देना, जैसे रास्तें में स्थित वृक्ष राहगीरों को अपने पत्र, पुष्प, छाया और फल इत्यादि प्रदान करने में जरा-सा भी संकोच नहीं करता, ‘दान’ कहलाता है। ऐसे दान को मोक्षरूपी गुप्त धन को दिखलाने वाला दिव्यांजन ही जानना चाहिये।

अब तुम ‘दम’ को पहचानने का लक्षण सुनो। जैसे कोई खड्ग चलाने वाला व्यक्ति अपने शत्रु का सिर सद्यः काट डालता है, वैसे ही विषयों तथा इन्द्रियों के संयोग को एकदम मूलोच्छेद कर डालना ‘दम’ कहलाता है। इन्द्रियों को विषयों के मेघों के तिमिर से रोकने के लिये उन्हें भली-भाँति बाँधकर प्रत्याहार के अधीन कर दिया जाता है। उस समय ‘प्रवृत्ति’ चित्त की शक्ति से व्याकुल होकर अन्दर से बाहर निकलती है और तब उन्हीं इन्द्रियों के दसों द्वारों से वैराग्य देह के अन्दर प्रविष्ट करता है। जो व्यक्ति ऐसे कठोर व्रतों का श्वासोच्छ्वास की अपेक्षा भी निरन्तर चलने वाला आचरण करता है तथा अविराम अहर्निश उन व्रतों का पालन करता है, उसके इस प्रकार के आचरण को ही ‘दम’ नाम से सम्बोधित करते हैं। इसके लक्षण भली-भाँति समझ लो।

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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