श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-16
दैवासुर सम्पद्वि भाग योग
दैवी गुणों में जो सबसे आगे है, उसका नाम ‘अभय’ है। जो बाढ़ में नहीं कूदता, उसे डूबने का डर भी नहीं लगता अथवा जो पथ्य से रहता है, उसके सामने व्याधि का भय छू भी नहीं जाता। ठीक इसी प्रकार अहंकार का प्रवेश कर्म और अकर्म के मार्ग में नहीं होने देना चाहिये तथा संसार का भय त्याग देना चाहिये अथवा यदि अद्वैत की भावना बढ़ जाय तो उसका परित्याग कर समस्त विषयों में आत्मभाव रखना चाहिये तथा भय की बात मन से हटा देनी चाहिये। परिणामस्वरूप अद्वैत बुद्धि आ जाने के कारण सब कुछ वैसे ही आत्ममय प्रतीत होने लगता है, जैसे जल यदि लवण को डुबाने हेतु आवे तो लवण स्वयं ही जल का रूप धारण कर लेता है और इससे भय का नाश होता है। हे धंनजय! इसी का नाम ‘अभय’ है। सम्यक् ज्ञान के मार्ग की यह बात है। अब मैं ‘सत्त्वशुद्धि’ को पहचानने का लक्षण बतलाता हूँ, सुनो। जैसे राख न तो जलती ही है और न बुझती ही है अथवा जैसे मध्यम अवस्था का चन्द्रमा सूक्ष्मरूप से अविकृत रहता है और उसमें न तो प्रतिपदा की बढ़ने वाली कला ही होती है और न अमावास्या का क्षय ही होता है अथवा जैसे वह नदी मध्यम अवस्था में शान्त होकर बहती रहती है, जिसमें न तो बरसात की बाढ़ ही होती है और ग्रीष्म काल वाला जलाभाव ही होता है, ठीक वैसे ही रजोगुण और तमोगुण से भरे हुए नाना प्रकार के मनोरथों का ध्यान त्यागकर बुद्धि एकमात्र स्वधर्म में ही अनुराग रखती है तथा इन्द्रियों के सामने अच्छे-बुरे किसी प्रकार के विषय रखे जायँ, पर मन जरा-सा भी विचलित नहीं होता। जैसे पति के बाहर चले जाने पर पतिव्रता का विरहाकुल मन किसी प्रकार की लाभ-हानि की ओर प्रवृत्त नहीं होता, अपितु उदासीन रहता है, वैसे ही एकमात्र आत्मस्वरूप की लगन लगने के कारण बुद्धि जो इस प्रकार तन्मय हो जाती है, उसी को केशिहन्ता भगवान् श्रीकृष्ण ‘सत्त्वशुद्धि’ नाम से सम्बोधित करते हैं। |
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