श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-16
दैवासुर सम्पद्वि भाग योग
जिन जिज्ञासुओं के मन में ऐसी इच्छा हो, उनकी यह इच्छा पूरी करने के लिये अब लक्ष्मीपति भगवान् नारायण निरूपण करेंगे। अब उस दैवी-सम्पदा का बखान होगा जो ज्ञान की जन्मदात्री है तथा शान्ति की भी वृद्धि करती है। साथ ही उस आसुरी सम्पत्ति का भी विवेचन किया जायेगा जो राग-द्वेश इत्यादि विकारों को आश्रय प्रदान करती है। इष्ट और अनिष्ट कार्यों का सम्पादन दैवी और आसुरी - यही दोनों सम्पत्तियाँ करती हैं तथा इस विषय की प्रस्तावना सर्वप्रथम नवें अध्याय में की जा चुकी है। इसी अवसर पर इस विषय का प्रत्यक्ष और उचित विचार होने को था; पर बीच में ही एक दूसरा विषय आ खड़ा हो गया और यह प्रकरण जहाँ-का-तहाँ रह गया। इसलिये अब भगवान् नारायण वही प्रकरण इस अध्याय में बतलावेंगे। अतः इस सोलहवें अध्याय को पिछले प्रकरण का पूरक समझना चाहिये। अस्तु। दैवी तथा आसुरी सम्पत्तियों के सामर्थ्य के कारण ही ज्ञान को इष्ट अथवा अनिष्ट रूप प्राप्त होता है। अब तुम उस दैवी सम्पत्ति के लक्षण मन लगाकर सुनो जो मुमुक्षुजनों के लिये मार्गदर्शक होती है तथा दीपक की ज्योति की तरह मोहरूपी रात्रि का घोर अन्धकार मिटा करके उसे प्रकाशित करती है। जो अनेक पदार्थ एक-दूसरे के लिये पोषक होते हैं, उन सबको एकत्र करने को ही लोक में सम्पत्ति कहते हैं। दैवी सम्पत्ति सुख उत्पन्न करने वाली होती है। किसी-किसी को वह सम्पत्ति दैवयोग से प्राप्त होती है और इसीलिये उसे लोग दैवी नाम से पुकारते हैं।[1] |
टीका टिप्पडी और संदर्भ
- ↑ (1-67)
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