ज्ञानेश्वरी पृ. 389

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-11
विश्वरूप दर्शन योग


किरीटिनं गदिनं चक्रहस्तमिच्छामि त्वां द्रष्टुमहं तथैव ।
तेनैव रूपेण चतुर्भुजेन सहस्रबाहो भव विश्वमूर्ते ॥46॥

जिसके शरीर की कान्ति नीलकमल के लिये भी आदर्श है, जो आकाश के रंग की भी शोभा में वृद्धि करती है और जो इन्द्रनील में भी तेजस्विता लाती है, जिसकी कटि की शोभा से मदन की शोभा भी वैसी ही बढ़ती है, जैसे मरकतमणि में मानो सुगन्ध उत्पन्न हुई हो अथवा आनन्द में अंकुर प्रस्फुटित हुए हों, जिसके गोद का आश्रय पाकर मदन शोभायमान हो गया हो, जिसके विषय में ऐसी भ्रान्ति होती है कि मस्तक की शोभा मुकुट बढ़ा रहा है अथवा मुकुट की शोभा मस्तक से बढ़ रही है-क्योंकि उस अंग की शोभा ही श्रृंगार के लिये भूषण हो रही है-जिस प्रकार गगन में इन्द्रधनुष पर मेघ दृष्टिगोचर होते हैं, वैसे ही जिस शांर्गपाणि ने वैजयंती माला धारण कर रखी है और असुरों की भी मोक्ष प्रदान करने में जो गदा इतनी उदार है और हे गोविन्द! जिसका चक्र अप्रतिम सौम्य तेज से चमक रहा है, उसी सुन्दर रूप का दर्शन करने के लिये मैं अधीर हो रहा हूँ। इसलिये हे स्वामी! अब आप अपना वही स्वरूप धारण करें। इस विश्वरूप को देख करके मेरी आँखें तृप्त हो चुकी हैं और अब ये आपकी कृष्णमूर्ति का दर्शन करने के लिये लालायित हो रही हैं। अब इन आँखों को उस सौम्य मूर्ति को देखने के सिवा और कुछ भी भाता नहीं। उस मूर्ति के सम्मुख इन्हें इस विश्वरूप का कुछ भी महत्त्व नहीं जान पड़ता। हमलोगों को उस मूर्ति के अलावा अन्यत्र कहीं भोग और मोक्ष नहीं मिल सकता। इसलिये हे महाराज! अब आप अपना यह विश्वरूप समेटकर वही पहले वाला सगुणरूप धारण करें।[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (600-608)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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