ज्ञानेश्वरी पृ. 383

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-11
विश्वरूप दर्शन योग


यच्चावहासार्थमसत्कृतोऽसि विहारशय्यासनभोजनेषु ।
एकोऽथवाप्यच्युत तत्समक्षं तत्क्षामये त्वामहमप्रमेयम् ॥42॥

आप इस विश्व के अनादि और आदि कारण हैं; परन्तु जिस समय आप सभा में विराजमान होते थे, उस समय मैं सगे-सम्बन्धी के नाते से हँसी-मजाक भी किया करता था। मैं जब कभी भी आपके घर जाता था, वहाँ आप मेरा अत्यधिक सम्मान करते थे और यदि उस सम्मान में आप जरा-सा भी कमी करते थे तो मैं अपने लाड़-प्यार के कारण आपसे रुष्ट भी हो जाया करता था। हे शांर्गधर! मैंने आपके साथ अनेक बार इसी प्रकार का आचरण किया है, जिसके लिये अब मुझे आपके चरणों पर गिरकर आपसे क्षमा माँगनी चाहिये। स्नेह के कारण मैं अनेक बार आपके सम्मुख पीठ करके बैठा हूँ, पर हे देव! क्या इस प्रकार बैठना मेरे लिये उचित था? कभी नहीं। मैंने बहुत बड़ी भूल की। हे देव! कभी-कभी मैं आपके गले में बाँहें डाल दिया करता था, अखाड़े में आपके साथ हुड़दंग मचाया करता था तथा उठा-पटक किया करता था। चौपड़ खेलते समय बेईमानी की चाल चलकर उल्टे आपके साथ झगड़ा कर बैठता था। जिस समय कोई सुन्दर चीज दिखायी देती थी, उस समय आपसे यह हठ करता था कि पहले यह चीज मुझको ही मिलनी चाहिये। केवल इतना ही नहीं आपको अक्ल देने में भी मैंने कभी कोर-कसर नहीं छोड़ी और अनेक बार तो मैंने आपसे ऐसी अमर्यादित बातें भी कही हैं कि हम तुम्हारे कौन होते हैं? मेरा यह अपराध इतना विशाल है कि वह तीनों लोकों में भी नहीं समा सकता। पर हे देव! मैं आपके चरण छूकर कहता हूँ कि मुझसे ये सब त्रुटियाँ एकदम अनजान में हुई हैं। हे प्रभु! आप तो भोजन के समय मुझे याद करते थे, पर मेरा यह व्यर्थ का अहंकार देखिये कि मैं उल्टे आपसे रुष्ट होकर बैठ जाया करता था, आपके शयनकक्ष में आनन्दपूर्वक क्रीड़ा करता रहता था और आपकी शय्या पर आपके ही साथ सोया करता था।

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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