श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-11
विश्वरूप दर्शन योग
पर हे स्वामी! आपके इस स्वरूप के सम्बन्ध में मुझे अब तक कुछ भी ज्ञात नहीं था, इसीलिये मैं अब तक आपके साथ सगे-सम्बन्धियों जैसा ही व्यवहार करता था। यह मुझसे कैसी अनुचित बात हुई! मैंने अमृत का उपयोग आँगन सींचने में कर डाला। मैंने कामधेनु को घोड़े का बछेड़ा समझ लिया। मेरे हाथ तो पारस पत्थर लगा था, पर उसे तोड़कर मैंने अपने घर की नींव में भर दिया। कल्पतरु काटकर उससे खेत का घेरा बना डाला। जैसे चिन्तामणि की खान मिलने पर कोई पत्थर समझकर उनका उपयोग पशुओं को हाँकने में कर डालता है, वैसे ही मैंने भी आज तक आपकी संगति सिर्फ सगा-सम्बन्धी ही समझकर की। भला और दूर क्यों जाऊँ; यह आज का ही प्रसंग देखिये। यह कितना बड़ा युद्ध है और इसमें मैंने आपको अपना सारथी बनाया है। हे दाता! इन कौरवों के घर मैंने आपकेा बिचवई (मध्यस्थता) करने के लिये भेजा था। इस प्रकार हे जगदीश्वर! मैंने अपने लाभ के लिये मानो आपको खरीद ही लिया था। योगिजन समाधि में आपका ही ध्यान करके सुख-भोग करते हैं; पर मुझ अज्ञानी को इस बात का कुछ भी पता नहीं लगा। और तो और, मैं सदा आपके सम्मुख अवरोध ही खड़ा किया करता था।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (537-543)
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