ज्ञानेश्वरी पृ. 382

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-11
विश्वरूप दर्शन योग


सखेति मत्वा प्रसभं यदुक्तं हे कृष्ण हे यादव हे सखेति ।
अजानता महिमानं तवेदं मया प्रमादात्प्रणयेन वापि ॥41॥

पर हे स्वामी! आपके इस स्वरूप के सम्बन्ध में मुझे अब तक कुछ भी ज्ञात नहीं था, इसीलिये मैं अब तक आपके साथ सगे-सम्बन्धियों जैसा ही व्यवहार करता था। यह मुझसे कैसी अनुचित बात हुई! मैंने अमृत का उपयोग आँगन सींचने में कर डाला। मैंने कामधेनु को घोड़े का बछेड़ा समझ लिया। मेरे हाथ तो पारस पत्थर लगा था, पर उसे तोड़कर मैंने अपने घर की नींव में भर दिया। कल्पतरु काटकर उससे खेत का घेरा बना डाला। जैसे चिन्तामणि की खान मिलने पर कोई पत्थर समझकर उनका उपयोग पशुओं को हाँकने में कर डालता है, वैसे ही मैंने भी आज तक आपकी संगति सिर्फ सगा-सम्बन्धी ही समझकर की। भला और दूर क्यों जाऊँ; यह आज का ही प्रसंग देखिये। यह कितना बड़ा युद्ध है और इसमें मैंने आपको अपना सारथी बनाया है। हे दाता! इन कौरवों के घर मैंने आपकेा बिचवई (मध्यस्थता) करने के लिये भेजा था। इस प्रकार हे जगदीश्वर! मैंने अपने लाभ के लिये मानो आपको खरीद ही लिया था। योगिजन समाधि में आपका ही ध्यान करके सुख-भोग करते हैं; पर मुझ अज्ञानी को इस बात का कुछ भी पता नहीं लगा। और तो और, मैं सदा आपके सम्मुख अवरोध ही खड़ा किया करता था।[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (537-543)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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