ज्ञानेश्वरी पृ. 381

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-11
विश्वरूप दर्शन योग


वायुर्यमोऽग्निर्वरुण: शशांक प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च ।
नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्व: पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते ॥39॥
नम: पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व ।
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्व: ॥40॥

हे देव! ऐसी कौन-सी वस्तु है जिसमें आप नहीं हैं, ऐसी कौन-सी जगह है जहाँ आप नहीं हैं। पर अब इन बातों को छोड़िये। आप चाहे जैसे हों, मैं आपको नमन करता हूँ। हे अनन्त! आप वायु हैं, सबका नियमन करने वाले यम हैं और प्राणिमात्र में रहने वाले अग्नि भी हैं। आप वरुण और सोम हैं। आप ही सृष्टिकर्ता ब्रह्मा और उस विश्वपितामह ब्रह्मा के आदि जनक हैं। इसके अतिरिक्त और जो-जो रूप हों अथवा अरूप हों; वह सब आप ही हैं। ऐसे जगन्नाथ भगवान् को मैं नमन करता हूँ।” पाण्डुपुत्र अर्जुन ने इस प्रकार अनुराग युक्त चित्त् से भगवान् को नमन करके फिर कहना आरम्भ किया।

“हे प्रभो! मैं आपको नमस्कार करता हूँ। नमस्कार करता हूँ।” तदनन्तर, उसने भगवान् की श्रीमूर्ति को आपाद मस्तक ठीक तरह देखकर बारम्बार नमस्ते, नमस्ते कहा। उस मूर्ति के पृथक्-पृथक् अवयवों को देखकर उसे अत्यन्त समाधान हुआ और उसने फिर कहा कि हे प्रभो! नमस्ते, नमस्ते। इस चराचर जगत् के प्राणिमात्र में उन्हीं को देखकर उसने फिर कहा कि हे प्रभो, नमस्ते, नमस्ते। उसे इस प्रकार प्रभु के अत्यन्त आश्चर्यजनक अनन्त स्वरूपों का जैसे-जैसे स्मरण होने लगा, वैसे-वैसे वह नमस्ते-नमस्ते कहने लगा। उसकी समझ में ही नहीं आता था कि इसके अलावा भगवान् की और कौन-सी स्तुति की जाय तथा उससे मौन भी नहीं रहा जाता था। उसे इस बात का भी ज्ञान नहीं रहा कि प्रेमावेश में मैं क्या बका जा रहा हूँ। किंबहुना, उसने हजारों बार नमस्कार किया और फिर उसने कहा-“हे श्रीहरि! मैं आपके सम्मुख नमस्कार करता हूँ। मुझे इस बात से कुछ भी सरोकार नहीं है कि प्रभु के पीठ अथवा पेट हैं अथवा नहीं, पर फिर भी, हे स्वामी! मैं आपके पृष्ठ-प्रान्त को भी नमस्कार करता हूँ। आप मेरे पृष्ठ भाग में मेरे पक्ष में खड़े हैं, इसीलिये मैं आपके पृष्ठ-प्रान्त का नाम लेता हूँ; परन्तु वास्तव में आप न तो संसार के सम्मुख ही हैं और न उसकी पीठ के पीछे ही हैं। मैं आपके अलग-अलग अवयवों का वर्णन नहीं कर सकता; इसलिये हे सर्वात्मक देव! मैं आपके सर्वरूप को ही नमस्कार करता हूँ। हे महाराज! जिसकी शक्ति-सामर्थ्य अनन्त है, जो अमित पराक्रमी है, जो सभी कालों में समानरूप से रहने वाला है, जो सर्वरूप है, उसे मेरा नमस्कार है। जैसे आकाश ही समस्त आकाश को आच्छादित करके अवकाश रूप से रहता है, वैसे ही आप भी अपने सर्वत्व से सबमें व्याप्त रहते हैं। किंबहुना, आप ही अखिल विश्व हैं; परन्तु जैसे क्षीरसिन्धु में क्षीर की ही लहरें उठती हैं, ठीक वैसे ही यह सम्बन्ध है। इसीलिये, हे देव! अब यह बात मेरे अन्तःकरण में ठीक-ठीक बैठ गयी है कि आप इस सारे संसार से भिन्न नहीं हैं और यह सब कुछ आप ही हैं।[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (519-536)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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