ज्ञानेश्वरी पृ. 380

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-11
विश्वरूप दर्शन योग


त्वामादिदेव: पुरुष: पुराण स्त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम् ।
वेत्तासि वेद्यं च परं च धाम त्वया ततं विश्वमनन्तरूप ॥38॥

आप प्रकृति और पुरुष के आदि कारण हैं; आप ही महत्तत्त्व की सीमा हैं। स्वतः अनादिसिद्ध पुरातन हैं। आप सम्पूर्ण विश्व के जीवन और मूल कारण हैं। भूत और भविष्य का ज्ञान केवल आपके ही हाथ में है। हे अभिन्न प्रभो! श्रुति के आँखों को आपके ही स्वरूप के दर्शनों से सुख होता है। आप ही तीनों भुवनों के आधार के आधार हैं। इसीलिये आपको परम महाधाम कहा जाता है। कल्पान्त के समय महद्ब्रह्म आपमें ही प्रवेश करता है। किंबहुना, हे देव! इस समस्त संसार को आपने ही उत्पन्न करके इसका विस्तार किया है। फिर भला हे अनन्तरूप भगवन्! आपका वर्णन कौन कर सकता है?[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (514-518)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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