श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-11
विश्वरूप दर्शन योग
हे नारायण! इसका क्या कारण है कि ये राक्षस आपके चरणों में नहीं पड़ रहे हैं और आपसे दूर भाग रहे हैं। परन्तु यह बात मैं आपसे ही क्यों पूछूँ? यह तो मैं भी जान सकता हूँ कि सूर्य के समक्ष अँधेरा टिक ही कैसे सकता है? हे स्वामी! आप स्वप्रकाश के आगार हैं और यदि आपके सम्मुख ये निशाचररूपी अँधेरा अपने-आप मिट जाय तो इसमें आश्चर्य ही क्या है? इतने दिनों तक यह बात मेरी पकड़ से बाहर थी; परन्तु हे श्रीराम! अब आपकी सारी महिमा का भरपूर ज्ञान हो गया है। जिससे इस विविध सृष्टि की बेलें निकलती हैं, जिससे जीवमात्र की बेलों का विस्तार होता है, यह विश्व-बीज महद्ब्रह्म ही आपके महासंकल्प से उत्पन्न हुआ हे। हे देव! आप सर्वदा निःसीम तत्त्व से भरे हुए हैं। हे देव! आप निःसीम और अनन्त गुणों से ओत-प्रोत हैं। हे देव! आप ही अत्यन्त साम्य की अखण्डित अवस्था है और आप ही देवाधिपति भी हैं। हे देव! आप ही इन तीनों लोकों के जीवन हैं। हे सदाशिव! आप अविनाशी तथा नित्य मंगलस्वरूप हैं। आप ही सत्-असत् इन दोनों से परे रहने वाले तत्त्व हैं।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (507-513)
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