ज्ञानेश्वरी पृ. 379

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-11
विश्वरूप दर्शन योग


कस्माच्च ते न नमेरन्महात्मन् गरीयसे ब्रह्मणोऽप्यादिकर्त्रे ।
अनन्त देवेश जगन्निवास त्वमक्षरं सदसत्तत्परं यत् ॥37॥

हे नारायण! इसका क्या कारण है कि ये राक्षस आपके चरणों में नहीं पड़ रहे हैं और आपसे दूर भाग रहे हैं। परन्तु यह बात मैं आपसे ही क्यों पूछूँ? यह तो मैं भी जान सकता हूँ कि सूर्य के समक्ष अँधेरा टिक ही कैसे सकता है? हे स्वामी! आप स्वप्रकाश के आगार हैं और यदि आपके सम्मुख ये निशाचररूपी अँधेरा अपने-आप मिट जाय तो इसमें आश्चर्य ही क्या है? इतने दिनों तक यह बात मेरी पकड़ से बाहर थी; परन्तु हे श्रीराम! अब आपकी सारी महिमा का भरपूर ज्ञान हो गया है। जिससे इस विविध सृष्टि की बेलें निकलती हैं, जिससे जीवमात्र की बेलों का विस्तार होता है, यह विश्व-बीज महद्ब्रह्म ही आपके महासंकल्प से उत्पन्न हुआ हे। हे देव! आप सर्वदा निःसीम तत्त्व से भरे हुए हैं। हे देव! आप निःसीम और अनन्त गुणों से ओत-प्रोत हैं। हे देव! आप ही अत्यन्त साम्य की अखण्डित अवस्था है और आप ही देवाधिपति भी हैं। हे देव! आप ही इन तीनों लोकों के जीवन हैं। हे सदाशिव! आप अविनाशी तथा नित्य मंगलस्वरूप हैं। आप ही सत्-असत् इन दोनों से परे रहने वाले तत्त्व हैं।[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (507-513)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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