ज्ञानेश्वरी पृ. 376

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-11
विश्वरूप दर्शन योग


द्रोणं च भीष्मं च जयद्रथं च कर्णं तथान्यानपि योधवीरान् ।
मया हतांस्त्वं जहि मा व्यथिष्ठायुध्यस्व जेतासि रणे सपत्नान् ॥34॥

तुम द्रोण की चिन्ता मत करो, भीष्म का भय मत मानो और अपने अन्तःकरण में इस बात की शंका मत करो कि इस कर्ण पर मैं कैसे शस्त्र चलाऊँ। तुम यह भी चिन्ता न करो कि अब मैं जयद्रथ को किस उपाय से मारूँ। इनके अलावा और भी जो बड़े-बड़े शूरवीर हैं, उन सबको तुम सिर्फ चित्रों में बने हुए प्रचण्ड सिंह की ही भाँति समझो और इनका वैसे ही नाश कर डालो, जैसे चित्रांकित सिंहों की पंक्तियाँ हाथों से पोंछ डाली जाती हैं। हे पाण्डव! क्या इतनी बातें बतला देने के बाद भी युद्ध भूमि में जमे हुए इन सैनिकों का कुछ महत्त्व बाकी रह जाता है? अरे, यह सब भ्रम मात्र है। जो कुछ वास्तविक था, उसको तो मैं पहले ही नष्ट कर चुका हूँ। जिस समय तुमने इन शूरवीरों को मेरे मुख में प्रवेश करते हुए देखा था, उसी समय उनके आयु का अन्त हो चुका था। अब यहाँ जो कुछ दृष्टिगोचर हो रहा है, वह सब सिर्फ छिलका-ही-छिलका है, इसलिये अब तुम झटपट उठो। जो लोग पहले ही मेरे द्वारा मारे जा चुके हैं, उन सबको अब तुम मार डालों और मिथ्या शोक मत करो। जैसे क्रीड़ा में स्वयं ही कोई लक्ष्य बनाकर खड़ा किया जाता है और फिर स्वयं ही बाण से उसका वेध किया जाता है वैसे ही मैं ही इन सबका कर्ता भी हूँ और हन्ता भी हूँ। मैंने तो तुम्हें सिर्फ एक दिखावटी साधन बना रखा है। हे सृहृद्! तुम्हें जिस चीज की चिन्ता सता रही थी, वह चीज अब एकदम नहीं है। अत: अब तुम सानन्द उस कीर्ति का भोग करो जिसमें सारा वैभव भरा पड़ा है। हे किरीटी! तुम जगत् की जिह्वा पर ऐसी लिपि लिखकर विजय सम्पादित करो कि स्वभावतः जो भाई-बन्धु अपने ऐश्वर्य के मद से मत वाले हो रहे थे और जो अपनी शक्ति के कारण पूरे विश्व को भारस्वरूप प्रतीत होते थे, उन्हें एकदम सहज में और अनायास ही अर्जुन ने बिल्कुल नष्ट कर डाला।”[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (472-481)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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