ज्ञानेश्वरी पृ. 375

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-11
विश्वरूप दर्शन योग


तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व जित्वा शत्रून्भुङ्क्ष्व राज्यं समृद्धम् ।
मयैवैते निहता: पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन् ॥33॥

इनसे चेष्टा करने वाला जो बल है वह तो मैंने पहले ही हर लिया है। अब जो वीर बचे हुए दिखायी देते हैं, वे सिर्फ कुम्भकार के द्वारा बनाये हुए निर्जीव पुतले हैं। जब कठपुतलियों को बाँधकर रखने वाली और उनसे नृत्य कराने वाली डोरी टूट जाती है, तब वे कठपुतलियाँ स्वतः वैसे ही धड़ाधड़ गिर पड़ती हैं, जैसे धक्का देने से कोई गिर जाता है और वे पुत्तलिकाएँ गिरकर उल्टी-पुल्टी हो जाती हैं। ठीक इसी प्रकार अब इन सेनाओं के उलटकर गिर पड़ने में कुछ भी समय न लगेगा। अत: हे अर्जुन! अब तुम तुरन्त उठो और कुछ बुद्धिमत्ता दिखलाओ। तुमने गो-ग्रहण के अवसर पर कौरव-सेनाओं पर एकदम से मोहनास्त्र का प्रयोग किया था और जब उससे समस्त सेनाएँ मूर्च्छित हो गयी थीं तब राजा विराट के कायर पुत्र उत्तर के द्वारा तुमने शत्रुपक्ष के लोगों का वस्त्र छिनवा लिये थे और उन्हें नंगा करा दिया था। पर इस समय का कार्य तो उससे भी कहीं सूक्ष्म हो गया है। इस रणभूमि की ये समस्त सेनाएँ तो पहले ही मृत्यु का वरण कर चुकी हैं। अब इन पहले से मृत पड़ी सेनाओं का नाश कर डालो और यह कीर्ति सम्पादन करो कि अकेले अर्जुन ने ही सारे शत्रुओं का विनाश कर विजयश्री प्राप्त की थी और फिर तुम्हें यह केवल कीर्ति ही नहीं मिलेगी, अपितु इसके साथ-ही-साथ समग्र राज्य लक्ष्मी भी तुम्हारे हाथ लगेगी। अत: हे सव्यसाची! अब इन सब कार्यों में तुम केवल निमित्तमात्र ही बनो।[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (466-471)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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