श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-11
विश्वरूप दर्शन योग
इनसे चेष्टा करने वाला जो बल है वह तो मैंने पहले ही हर लिया है। अब जो वीर बचे हुए दिखायी देते हैं, वे सिर्फ कुम्भकार के द्वारा बनाये हुए निर्जीव पुतले हैं। जब कठपुतलियों को बाँधकर रखने वाली और उनसे नृत्य कराने वाली डोरी टूट जाती है, तब वे कठपुतलियाँ स्वतः वैसे ही धड़ाधड़ गिर पड़ती हैं, जैसे धक्का देने से कोई गिर जाता है और वे पुत्तलिकाएँ गिरकर उल्टी-पुल्टी हो जाती हैं। ठीक इसी प्रकार अब इन सेनाओं के उलटकर गिर पड़ने में कुछ भी समय न लगेगा। अत: हे अर्जुन! अब तुम तुरन्त उठो और कुछ बुद्धिमत्ता दिखलाओ। तुमने गो-ग्रहण के अवसर पर कौरव-सेनाओं पर एकदम से मोहनास्त्र का प्रयोग किया था और जब उससे समस्त सेनाएँ मूर्च्छित हो गयी थीं तब राजा विराट के कायर पुत्र उत्तर के द्वारा तुमने शत्रुपक्ष के लोगों का वस्त्र छिनवा लिये थे और उन्हें नंगा करा दिया था। पर इस समय का कार्य तो उससे भी कहीं सूक्ष्म हो गया है। इस रणभूमि की ये समस्त सेनाएँ तो पहले ही मृत्यु का वरण कर चुकी हैं। अब इन पहले से मृत पड़ी सेनाओं का नाश कर डालो और यह कीर्ति सम्पादन करो कि अकेले अर्जुन ने ही सारे शत्रुओं का विनाश कर विजयश्री प्राप्त की थी और फिर तुम्हें यह केवल कीर्ति ही नहीं मिलेगी, अपितु इसके साथ-ही-साथ समग्र राज्य लक्ष्मी भी तुम्हारे हाथ लगेगी। अत: हे सव्यसाची! अब इन सब कार्यों में तुम केवल निमित्तमात्र ही बनो।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (466-471)
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