ज्ञानेश्वरी पृ. 374

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-11
विश्वरूप दर्शन योग


श्रीभगवानुवाच
कालोऽस्मि लोकक्षयकृत्प्रवृद्धोलोकान् समाहर्तुमिह प्रवृत्त: ।
ऋतेऽपि त्वां न भविष्यन्ति सर्वे येऽवस्थिता: प्रत्यनीकेषु योधा: ॥32॥

तो सुनो! मै वास्तव में काल हूँ और लोक-संहार के लिये ही बढ़ रहा हूँ। यह देखो, मेरे अनन्त मुख फैले हुए हैं और अब यह सम्पूर्ण विश्व मैं निगल जाऊँगा।” यह सुनकर अर्जुन ने मन-ही-मन कहा कि हाय! हाय! उस पहले वाले संकट से ही इतना व्याकुल हो गया था और इसीलिये मैंने इनसे यह प्रार्थना की थी; पर अब यह उससे भी भयंकर उग्रता दिखला रहे हैं जिसके सम्मुख पूर्व वाली उग्रता कोई चीज ही नहीं थी। उधर भगवान् ने भी अपने मन में विचार किया कि मैंने जो यह कड़ा जवाब दिया है उससे अर्जुन और भी संतप्त हो जायगा, इसलिये उन्होंने झट से यह कह दिया कि इसमें एक बात और है, वह यह कि तुम पाण्डव लोग इस संसाररूपी संकट से पूर्णतया बाहर हो। यह सुनकर अर्जुन को कुछ ढाढ़स बँधा और उसके प्राण निकलते-निकलते बचे। वह मृत्युरूपी महामारी के अधीन हो गया था; पर अब उसके होश कुछ ठिकाने हुए और वह फिर श्रीकृष्ण के वचनों की ओर चित्त लगाने लगा।

उस समय भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा-“हे अर्जुन! यह बात तुम सदा अपने ध्यान में रखो कि तुम पाण्डव लोग मेरे हो। तुम लोगों के सिवाय अन्य शेष लोगों को निगल जाने के लिये मैं इस समय तत्पर हुआ हूँ। जैसे प्रचण्ड बड़वानल में मक्खन की गोली डाल दी जाय, वैसे ही तुम देख रहे हो कि यह समस्त जगत् मेरे मुख में पड़ा हुआ है, इसमें कुछ भी मिथ्या नहीं है। ये सेनाएँ मिथ्या अभिमान से ऐंठ रही हैं, पर इनकी सारी ऐंठन व्यर्थ है। इस चतुरंगिणी सेना के पराक्रम का अभिमान मानो महाकाल से स्पर्धा कर रहा है। देखो, इन पर शौर्य-वृत्ति का कैसा मद चढ़ा है। वे कहते हैं कि हम एक दूसरी सृष्टि की रचना कर सकते हैं। प्रतिज्ञा करके मौत को ही मौत के घाट उतार सकते हैं। केवल यही नहीं, इस समस्त जगत् को एक घूँट में पी सकते हैं, पूरी पृथ्वी को चबा सकते हैं, आकाश को ऊपर-ही-ऊपर भस्म कर सकते हैं तथा अपने बाणों की शक्ति से पवन को भी एक ही स्थान पर रोककर जर्जर कर सकते हैं। ये सैनिकों की टोलियाँ एक जगह इकट्ठी होकर अपने शौर्य की कृतियों में फूली नहीं समातीं और वीर अपनी सेनाओं की प्रशंसा करते हुए उन्हें यमराज से भी बढ़कर भयंकर बतलाते हैं। इनके वचन शास्त्रों से भी तीक्ष्ण हैं, इनकी आकृति अग्नि से भी अधिक दाहक है और इनकी घातकता के समक्ष कालकूट विष मधुर ही जान पड़ता है। पर ये सब गगन में दृष्टिगोचर होने वाले बादलों के गर्न्धव नगर अथवा सिर्फ पोले पिण्ड ही हैं। ये वीर सचमुच चित्र में बने हुए फलों के ही सदृश हैं। हे पार्थ! यह एकमात्र मृगजल की बाढ़ है। यह कोई सेना नहीं है, अपितु कपड़े का बनाया हुआ सर्प है अथवा श्रृंगार कर रखी हुई कोई गुड़िया है।[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (451-465)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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