श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-11
विश्वरूप दर्शन योग
जैसे महानदियों का प्रवाह बड़े वेग से समुद्र के विस्तार में समा जाता है, ठीक वैसे ही चारों ओर से आकर यह समस्त जगत् इसी मुख में प्रविष्ट हो रहा है। ये समस्त प्राणिगण आयुष्य के मार्ग पर अहर्निश की सीढ़ियाँ बनाकर बड़े वेग से इस मुख में प्रविष्ट हो रहे हैं।[1]
जैसे प्रज्वलित पर्वत की कन्दराओं में पतंगों के झुण्ड-के-झुण्ड स्वतः आ टपकते हैं; वैसे ही ये सब लोग भी कूद-कूदकर इस मुख में गिर रहे हैं, परन्तु जैसे तप्त लौह जल का शोषण कर लेता है, वैसे ही इस मुख में जो-जो आ गिरते हैं वे सब-के-सब जलकर राख हो जाते हैं। उन सबके नाम-रूप व्यवहारतः मिटते चले जा रहे हैं।[2] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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