ज्ञानेश्वरी पृ. 370

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-11
विश्वरूप दर्शन योग


यथा नदीनां बहवोऽम्बुवेगा: समुद्रमेवाभिमुखा द्रविन्ति ।
तथा तवामी नरलोकवीरा विशन्ति वक्त्राण्यभिविज्वलन्ति ॥28॥

जैसे महानदियों का प्रवाह बड़े वेग से समुद्र के विस्तार में समा जाता है, ठीक वैसे ही चारों ओर से आकर यह समस्त जगत् इसी मुख में प्रविष्ट हो रहा है। ये समस्त प्राणिगण आयुष्य के मार्ग पर अहर्निश की सीढ़ियाँ बनाकर बड़े वेग से इस मुख में प्रविष्ट हो रहे हैं।[1]


यथा प्रदीप्तं ज्वलनं पतंगाविशन्ति नाशाय समृद्धवेगा: ।
तथैव नाशाय विशन्ति लोकास्तवापि वक्त्राणि समृद्धवेगा: ॥29॥

जैसे प्रज्वलित पर्वत की कन्दराओं में पतंगों के झुण्ड-के-झुण्ड स्वतः आ टपकते हैं; वैसे ही ये सब लोग भी कूद-कूदकर इस मुख में गिर रहे हैं, परन्तु जैसे तप्त लौह जल का शोषण कर लेता है, वैसे ही इस मुख में जो-जो आ गिरते हैं वे सब-के-सब जलकर राख हो जाते हैं। उन सबके नाम-रूप व्यवहारतः मिटते चले जा रहे हैं।[2]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (423-424)
  2. (425-426)

संबंधित लेख

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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