ज्ञानेश्वरी पृ. 367

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-11
विश्वरूप दर्शन योग


अमी च त्वां धृतराट्रस्य पुत्रा:सर्वे सहैवावनिपालसंघै: ।
भीष्मो द्रोण: सूतपुत्रस्तथासौ सहास्मदीयैरपि योधमुख्यै: ॥26॥

ये कौरव कुल के समस्त वीर और अन्धे धृतराष्ट्र के लड़के सपरिवार आपके मुख में प्रवेश करने ही वाले हैं और जो इनके सहायक देश-देश के राजे-महाराजे आये हुए हैं, उन सबको आप इस प्रकार निगल जाना चाहते हैं कि फिर पीछे कोई उनका नाम लेवा भी न रह जाय। हाथियों के झुण्ड और महावतों की टोलियाँ भी आप निगलते चले जा रहे हैं। तोपचियों और पैदल सिपाहियों के समूह भी आप खाते चले जा रहे हैं। जो कृतान्त (यम) के भाई-बन्धु हैं और जिनमें से प्रत्येक समस्त विश्व को चबा सकता है, उन करोड़ों शस्त्रों को भी आप निगल रहे हैं। हाथी, अश्व, रथ, पैदल, सबकी चतुरंगिणी सेनाएँ घोड़े जुते हुए रथों को आप बिना दाँत गड़ाये ही निकलते चले जा रहे हैं। पर हे देव! यह पता नहीं चलता कि इसमें आपको कौन-सा बहुत बड़ा आनन्द मिलता है। सत्य और शौर्य में जिनके समकक्ष का अन्य कोई नहीं है, उन भीष्म और ब्राह्मण द्रोणाचार्य को भी आपने खा लिया है। अहा, सूर्यपुत्र वीरवर कर्ण भी इसमें प्रविष्ट हो गया और देखिये मेरे पक्ष के वीरों को तो आप कचरे की (केशों की) भाँति उड़ाते चले जा रहे हैं अर्थात् नष्ट कर रहे हैं। हे विधाता! भगवान् के इस अनुग्रह से कैसी विपरीत स्थिति बन गयी कि मैंने आपसे ‘अपना विश्वरूप दिखा दो’ ऐसी प्रार्थना करके इस दीन जगत् पर अच्छा-खासा संकट बुला बैठा। पहले आपने अपनी दिव्य विभूति का थोड़ा-बहुत वर्णन करके उसे स्पष्ट किया था; पर उतने से ही मेरा मन नहीं भरा। मैं और भी अधिक विभूति जानने का हठ कर बैठा। इसलिये यही मानना पड़ता है कि प्रारब्ध कभी टलता नहीं। भवितव्यता के अनुसार व्यक्ति की बुद्धि भी हो जाती है। लोग मेरे ही सिर पर इसका ठीकरा फोड़ने को थे। फिर भला यह बात कैसे न होती?

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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