श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-11
विश्वरूप दर्शन योग
भयंकरता में महाकाल को भी जीतने वाले आपके ऐसे अनेक क्रोधपूर्ण मुख हैं, जिनके विस्तार के समक्ष आकाश भी अत्यल्प जान पड़ता है। इनमें से वह भाप निकल रही है, जो आकाश के विस्तार में भी नहीं समा सकती और जिसे तीनों लोक की वायु भी न आच्छादित कर सकती है और न रोक सकती है; वह भाप स्वयं अग्नि को भी जला रही है, इस मुख से अग्नि की लपटें कि ढंग से बाहर आ रही हैं। फिर सारे मुख एक समान नहीं हैं और उनमें वर्ण-भेद है। ऐसा प्रतीत होता है कि प्रलयाग्नि संसार का नाश करने के लिये मानो इन्हीं की सहायता लेती है। जिस स्वरूप के शरीर की तेजस्विता इतनी प्रबल है कि उसके समक्ष तीनों लोक जलकर राख हो सकते हैं, उसी स्वरूप में ये समस्त मुख हैं और उन मुखों में भी ऐसे विशाल, भयंकर तथा दृढ़ दाँत और दाढ़ें हैं। मानो वायु भी धनुर्वात के चपेट में पड़ गया हो अथवा स्वयं समुद्र ही भयंकर बाढ़ का शिकार हो गया हो अथवा बड़वानल का आश्रय लेकर विषाग्नि ही सर्वनाश करने के लिये तत्पर हुई हो अथवा हलाहल अग्नि को ग्रास बना रहा हो अथवा सबसे बढ़कर आश्चर्यजनक रूप में मृत्यु को ही किसी अन्य मृत्यु का सहयोग मिला हुआ हो; बस इसी प्रकार इस सर्वविनाशकारी तेज में ये मुख निकले हुए जान पड़ते हैं और मैं क्या बतलाऊँ कि ये मुख कितने विशाल हैं! ऐसा मालूम पड़ता है कि मानो आकाश टूटने पर जिस तरह आकाश में छेद पड़ जाता है अथवा पृथ्वी को बगल में दबाकर हिरण्याक्ष विवर में प्रविष्ट कर गया हो अथवा पाताल के महादेव ने पाताल की गुफा खोल दी हो; बस इसी प्रकार का इन मुखों का विस्तार है। इस प्रकार के मुखों में जिह्वा की भयंकरता तो और भी आश्चर्यजनक है। ऐसा प्रतीत होता है कि यह मूर्ति समझती है कि यह चराचर जगत् मेरे लिये एक भरपूर निवाला (ग्रास) भी नहीं है और इसीलिये वह कौतूहल से ही इसे निगल नहीं रही है। जैसे पाताल के नागों की फुफकार से विष की ज्वाला आकाशपर्यन्त जा पहुँचती है, वैसे ही इस विस्तृत मुख के गुफा-सदृश जबड़े में यह जिह्वा फैली हुई है। जैसे प्रलयकाल की विद्युत् के जाल में गन्धर्व नगर के मेघसमूह सजे हुए दृष्टिगत होते हैं; वैसे ही इन होठों के बाहर चमकने वाली ये तीक्ष्ण दाढ़ें दिखायी देती हैं और इस ललाटपट पर की आँखे तो मानो स्वयं भय को भी भय दिखलाकर उसे दबा रही हैं। |
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