ज्ञानेश्वरी पृ. 360

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-11
विश्वरूप दर्शन योग


द्यावापृथिव्योरिदमन्तरं हि व्याप्तं त्वयैकेन दिशश्च सर्वा: ।
दृष्ट्वाद्भुतं स्पमुग्रं तवेदं लोकत्रयं प्रव्यथितं महात्मन् ॥20॥

स्वर्ग और पाताल, पृथ्वी और अन्तराल, दसों दिशाएँ और चतुर्दिक् छाये हुए क्षितिज के वर्तुल-इन सबको मैं एकमात्र आपसे ही भरा हुआ कुतूहल से देख रहा हूँ। पर आकाशसहित इन सबको इस भयानक रूप ने मानो निगल रखा है अथवा आपके इस रूप के अद्भुत रस की तरंगों में चतुर्दश भुवन आ पड़े हैं। फिर भला ऐसे अद्भुत दृश्य का मेरी बुद्धि किस प्रकार आकलन कर सकती है? यह असाधारण व्यापकता किसी प्रकार मर्यादित नहीं की जा सकती और तेज की यह प्रखरता सहन नहीं की जा सकती। संसार का सुख तो दूर रहा, वह प्राणधारण ही अत्यन्त कठिनता से कर रहा है।

हे देव! न जाने क्यों आपका यह रूप देखकर भय की बाढ़ आ जाती हैॽ अब इस दुःख की तरंगों में तीनों लोक डूबे जा रहे हैं। यदि वास्तविक दृष्टि से देखा जाय तो आपके इस माहात्म्य के दर्शन में भय होने की क्या जरूरत है? पर आपके दर्शन के जिस गुण का अनुभव मुझे हो रहा है, निःसन्देह उसमें सुख लेशमात्र भी नहीं है। जब तक आपका स्वरूप दृष्टिगत नहीं होता, तभी तक जगत् को सांसारिक सुख अच्छा मालूम पड़ता है, परन्तु अब आपके विश्वरूप के दर्शन हो जाने पर विषय इच्छा की ओर से विकर्षण हो गया है और चित्त में उद्वेग उत्पन्न हुआ है। आपका यह रूप देखने पर क्या आपको प्रेमालिंगन किया जा सकता है और यदि ऐसा आलिंगन न किया जा सकता हो तो फिर कोई इस शोक-संकट में निवास ही कैसे कर सकता है? यदि आपका परित्याग कर कोई पीछे हटता है तो यह जीवन-मृत्यु का अपरिहार्य संसार मुँह बाये हुए सम्मुख खड़ा दिखायी देता है और उसे पीछे भी नहीं हटने देता और यदि वह आगे बढ़े तो आपका यह विलक्षण और अतर्क्य रूप सहन नहीं होता। इस प्रकार बीच में ही संकटापन्न तीनों भुवन भुने जा रहे हैं। इस समय मेरे अन्तःकरण की ठीक-ठीक यही अवस्था हुई है। जैसे कोई पहले अग्नि से जल जाय और जलन दूर करने के लिये समुद्र की तरफ जाय और वहाँ समुद्र में उठने वाली तरंगों को देखकर और भी अधिक भयग्रस्त तथा व्याकुल हो जाय। बस, ठीक वही दशा इस जगत् की भी हो रही है। वह आपको देखकर सिर्फ तिलमला रहा है।[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (315-326)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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