ज्ञानेश्वरी पृ. 358

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-11
विश्वरूप दर्शन योग


किरीटिनं गदिनं चक्रिणं च तेजोराशिं सर्वतो दीप्तिमन्तम् ।
पश्यामि त्वां दुर्निरीक्ष्यं समन्ताद्दीप्तानलार्कद्युतिमप्रमेयम् ॥17॥

हे श्रीहरि! आपके मस्तक पर अवस्थित यह वही मुकुट है जो बराबर रहता है, पर उसकी इस समय की प्रभा और विशालता कुछ विलक्षण ही है। हे विश्वमूर्ति! ऊपर वाले हाथ में आप उसी प्रकार चक्र धारण किये हुए हैं कि मानो अभी उसे चलाना ही चाहते हैं। हे विश्वनाथ! जो चीज इसमें पहले दृष्टिगोचर होती थी, वह इस समय नहीं है। दूसरी ओर क्या यह वही जानी-पहचानी गदा नहीं है और नीचे के ये दोनों शस्त्ररहित और रिक्त हाथ अश्वों की लगाम पकड़ने के लिये आगे बढ़ रहे हैं। हे विश्वेश! अब यह बात भी मैं अच्छी तरह से जान गया हूँ कि मेरे इच्छा करते ही और उतने ही वेग से जितना वेग उस इच्छा में था, आप एकदम से विश्वरूप हो गये। पर यह कितना अद्भुत चमत्कार है। यह देखकर चकित होने के लिये विस्मय के जितने सामर्थ्य की जरूरत होती है, उतना सामर्थ्य भी मुझमें नहीं है। मेरा चित्त यह आश्चर्य देखकर मोहित हो जाता है। यह विश्वरूप यहाँ है अथवा नहीं है, इस बात का भी मेरे मन में ठीक-ठीक निश्चय नहीं हो पाता। इस मूर्ति की प्रभा की नवलता का भला मैं क्या वर्णन करूँ? यह सम्पूर्ण विश्व इसमें किस प्रकार भरा हुआ रखा है। इस तेज की प्रखरता ऐसी है कि इसके समक्ष अग्नि की दृष्टि भी मन्द पड़ जाती है और सूर्य भी खद्योत की भाँति फीका पड़ जाता है। इस प्रचण्ड तेज के महासिन्धु में मानो पूरी सृष्टि ही डूब गयी है अथवा प्रलयकाल की विद्युत ने सारा आकाश आच्छादित कर रखा है अथवा संसार के प्रलयकाल की अग्नि-ज्वाला को तोड़कर मानो हवा में यह ऊँचा मण्डप बनाया गया है। मेरी दिव्यज्ञानरूपी दृष्टि से भी यह दृश्य देखा नहीं जाता। इसकी देदीप्यमान प्रभा हर पल इतनी बढ़ रही है और इसका तेज तथा दाहकता इतना विलक्षण है कि इसकी ओर देखने पर दिव्य नेत्र भी व्याकुल हो जाते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि महारुद्र के तीसरे नेत्र में महाप्रलयाग्नि का जो भण्डार गुप्त था, वही मानो उस नेत्र की कली खोलकर बाहर निकल पड़ा है। इस प्रकार चतुर्दिक् विस्तृत दाहक प्रकाश में पंचाग्नि की ज्वाला के भँवर उठते ही मानो सारा ब्रह्माण्ड कोयला हो रहा है। हे स्वामी! आपका ऐसा अद्भुत तेजोमय स्वरूप मैंने आज ही देखा है। आपकी व्यापकता और तेजस्विता की थाह ही नहीं लगती।[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (294-306)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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