ज्ञानेश्वरी पृ. 357

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-11
विश्वरूप दर्शन योग

        किंबहुना, हे अनन्त! बारम्बार देखने पर मुझे यही ज्ञात होता है कि अपना सर्वस्व आप ही हैं; परन्तु आपके रूप में केवल एक कमी दृष्टिगत होती है कि उसमें आदि, मध्य और अन्त-इन तीनों में एक भी नहीं है। आप सब जगहों में विद्यमान हैं; पर इसका पता कहीं नहीं लगता। इसीलिये यहाँ निश्चित रूप से यह निर्णय होता है कि आप में ये तीनों बातें एकदम नहीं हैं; इस प्रकार आदि, मध्य और अन्त से रहित हे विश्वनाथ! मैंने वास्तव में आपके विश्वरूप का दर्शन कर लिया है। हे प्रभु! आपकी इस महामूर्ति में ही भिन्न-भिन्न समस्त मूर्तियाँ प्रतिबिम्बित हैं और ऐसा जान पड़ता है कि आपने अनेक रंगों के ये अँगरखे ही धारण कर रखे हैं अथवा ये भिन्न-भिनन मूर्तियाँ आपके शरीररूपी महापर्वत पर निकली हुई बेलें ही हैं और वे दिव्यालंकाररूपी पुष्पों और फलों से लदी हुई हैं अथवा हे देव! आप महासिन्धु हैं और इन मूर्तिरूपी तरंगों से हिल रहे हैं अथवा आप कोई विशाल वृक्ष हैं और ये मूर्तियाँ उस वृक्ष के फलों की भाँति लगी हैं।

हे स्वामी! जैसे भूतमात्र से भरा हुआ भूमण्डल दिखायी पड़ता है अथवा नक्षत्रों से भरा हुआ आकाश होता है, वैसे ही असंख्य मूर्तियाँ से भरा हुआ आपका स्वरूप दिखायी देता है। जिन मूर्तियों में से एक-एक मूर्ति के अंगों से तीनों लोक उत्पन्न तथा विलीन होते हैं, वे समस्त मूर्तियाँ आपके शरीर पर मानो रोमों की भाँति दिखायी देती हैं। अब यदि मैं यह जानना चाहूँ कि इतना अधिक विस्तार रखने वाले आप हैं कौन तो मुझे यह पता चलता है कि आप मेरे ही सारथी श्रीकृष्ण हैं। अतः हे मुकुन्द! मैं समझता हूँ कि आप सदा ऐसे ही व्यापक रहते हैं और अपने भक्त पर कृपा करने के लिये ही इस प्रकार का प्रेममय स्वरूप धारण करते हैं। वह चतुर्भुजस्वरूप देखते ही मन और आँखें जुड़ा जाती हैं और यदि आलिंगन करने के लिये हाथ आगे बढ़ाये जायँ तो वह रूप सहज में उपलब्ध भी हो जाता है। हे विश्वरूप! ऐसा सुन्दर रूप आप मुझ पर अनुग्रह करने के लिये ही धारण करते हैं न? अथवा वह मेरा दृष्टि-दोष है, जिसे आप ऐसे साधारण दिखायी देते हैं? जो हो, पर अब तो मेरी दृष्टि का दोष निकल गया है और आपने सहज में ही मुझे दिव्य दृष्टि प्रदान कर लिया है। इसीलिये मैं आपकी वास्तविक महिमा का ठीक-ठीक स्वरूप देख सका हूँ। मैं अच्छी तरह से यह जान चुका हूँ कि मेरे रथ के मकरमुखी जूए के पीछे की ओर आसीन आप ही का यह सारा विश्वरूप है।[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (266-293)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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