श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-11
विश्वरूप दर्शनयोग
हे महाराज! मैं क्या बतलाऊँ कि विश्वरूप के उन अंगों की कान्ति का अद्भुत दृश्य कैसा और किसके सदृश था। कल्पान्त काल में द्वादश आदित्य इकट्ठे होते हैं। यदि उस प्रकार के सहस्रों दिव्य सूर्य एक साथ उदय हों, तो भी उन्हें उस विश्वरूप के महातेज की महिमा की उपमा नहीं दी जा सकती। यदि सारे संसार की समस्त विद्युत् इकट्ठी कर ली जाय और प्रलयाग्नि की समस्त सामग्री एक जगह कर ली जाय और उनमें दस महातेजों को भी मिला दिया जाय तो शायद उस विश्वरूप की अंग-प्रभा के तेज के समक्ष वे कुछ अल्प-से ही सिद्ध होंगे; पर इस प्रकार का तेज सम्भवतः कहीं न मिलेगा, जो अच्छी तरह से उसका पासंग भी ठहरे। इस प्रकार की अपार महिमा इन श्रीहरि में स्वाभाविक ही है। उनके सर्वांग का सर्वत्र फैलने वाला तेज जो मुझे देखने को मिला, यह व्यास मुनि की ही कृपा का फल है।”[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (237-241)
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