ज्ञानेश्वरी पृ. 351

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

Prev.png

अध्याय-11
विश्वरूप दर्शनयोग


दिव्यमाल्याम्बरधरं दिव्यगन्धानुलेपनम् ।
सर्वाश्चर्यमयं देवमनन्तं विश्वतोमुखम् ॥11॥

अर्जुन ने मानो डरकर ही इन शस्त्रयुक्त हाथों की ओर से अपनी आँखे फेर ली और तब वह भगवान् का कण्ठ और मस्तक देखने लगा। जिनसे पारिजात की सृष्टि हुई थी, जो महासिद्धियों के मूल पीठ हैं और जिनमें श्रम प्राप्त लक्ष्मी विश्राम लेती हैं, वे अत्यन्त निर्मल पुष्प उस कण्ठ और मस्तक पर धारण किये हुए दिखायी दिये। मस्तक पर फूलों के गुच्छे, अलग-अलग अवयवों पर फूलों के जाल, गजरे और झालरें इत्यादि तथा कण्ठ में अलौकिक पुष्पमालाएँ लहरा रही थीं। प्रभु के नितम्ब पर पीताम्बर इस प्रकार शोभा दे रहा था कि मानो स्वर्ग ने सूर्य के तेज का परिधान धारण किया हो अथवा मेरुगिरि स्वर्ण से आच्छादित कर दिया गया हो। जैसे कपूरवर्ण शंकर को कपूर का उबटन लगाया गया हो अथवा कैलाश के धवलगिरि पर पारे का लेप चढ़ाया गया हो अथवा क्षीरसमुद्र को दुग्ध के सदृश धवल वस्त्र पहनाया गया हो अथवा चाँदनी की तह लगाकर आकाश पर उसकी खोली चढ़ायी गयी हो, वैसे ही चन्दन का लेप भगवान् के पूरे शरीर में लगा हुआ दिखायी दिया। जिस सुगन्ध के द्वारा आत्मस्वरूप का तेज और अधिक द्युतिमान् होता है, जिससे ब्रह्मानन्द के दाह का शमन होता है, जिससे पृथ्वी को जीवन प्राप्त होता है, विरक्त संन्यासी भी जिसकी संगति करते हैं और अनंग (कामदेव) भी जो अपने सर्वांग में लगाता है, उस सुगन्ध की महिमा का वर्णन भला और कौन कर सकता है?

Next.png

संबंधित लेख

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः