ज्ञानेश्वरी पृ. 350

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-11
विश्वरूप दर्शनयोग

फिर भला उसके मन की कामना निष्फल कैसे हो सकती थी? क्या शिव के तूणीर में भी कभी निरर्थक जाने वाले बाण होते हैं? अथवा ब्रह्मदेव की वाणी में क्या कभी मिथ्या अक्षरों के साँचे रह सकते हैं बस अर्जुन को सद्यः उस अपार स्वरूप के पूर्ण दर्शन होने लगे। जिनकी थाह वेदों को भी नहीं लगती, उनका प्रत्येक अंग अर्जुन अपने दोनों नेत्रों से एक ही समय में और एक ही साथ देखने लगा। आपादमस्तकपर्यन्त उस स्वरूप का ऐश्वर्य देखते समय अर्जुन को ऐसा मालूम पड़ा कि वह विश्वरूप अनेक प्रकार के रत्नों और अलंकारों से सुशोभित है। वह परब्रह्म स्वरूप देव अपने शरीर पर धारण करने के लिये स्वयं ही नाना प्रकार के अलंकार और आभूषण बन गये थे। यह बताना अत्यन्त कठिन है कि वे आभूषण कैसे और किसके सदृश थे? जिस तेज से चन्द्र और सूर्यमण्डल भी प्रकाशित होते हैं, विश्व के जीवनरूपी महातेज का जो जीवन-सर्वस्व है, वह तेज ही इस विश्वरूप का श्रृंगार था। भला उसका ज्ञान किसी बुद्धि को हो सकता है?

वीर शिरोमणि अर्जुन ने देखा कि ऐसा ही तेज सम्पन्न श्रृंगार देव ने धारण किया है। जब अर्जुन ज्ञानरूपी दृष्टि से उस विश्वरूप के सरल हाथों की ओर दृष्टिपात किया, तब उसे उन हाथों में ऐसे चमकते हुए शस्त्र दिखायी पड़े कि मानो उनमें से कल्पान्त की ज्वाला ही निकल रही हो। उस समय अर्जुन की समझ में यह बात आयी कि इस रूप में अंग और अलंकार, हाथ और हथियार, जीव और शरीर के युग्म की दोनों वस्तुएँ स्वयं देव ही हैं और इसी प्रकार से देव ने सारा चराचर जगत् खचाखच भरकर व्याप्त कर रखा है। उन हथियारों की किरणों की प्रबल अग्नि में नक्षत्र मानो भूने जाने वाले चने की भाँति फूट रहे थे और उसके ताप से अग्नि मानो व्याकुल होकर समुद्र में प्रविष्ट होने के लिये तत्पर हो रही थी। तत्पश्चात् अर्जुन ने देव के ऐसे अनगिनत हाथ देखे, जिनमें ऐसे शस्त्र थे जो मानो कालकूट विष की लहरों में बुझाये हुए थे अथवा प्रचण्ड विद्युत् से युक्त थे।[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (197-217)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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