श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-2
सांख्य योग
न हि प्रपश्यामि ममापनुद्याद् “अपने वंशजों को यहाँ देखकर मेरे मन में जो शोक उत्पन्न हुआ है, उसे भला आपके उपदेशों के अलावा दूसरा कौन दूर कर सकता है? अब चाहे मुझे पूरी पृथ्वी का राज्य ही क्यों न प्राप्त हो जाय अथवा इन्द्रपद ही क्यों न मिल जाय, पर फिर भी मेरे मन का मोह मिट नहीं सकता। जैसे भुने हुए बीज उर्वराभूमि में भी बोये जायँ और उनकी आवश्यकतानुसार सिंचाई भी की जाय तो भी वे अंकुरित नहीं हो सकते अथवा जैसे आयु समाप्त हो जाने के बाद फिर कोई दवा कारगर नहीं हो सकती और एकमात्र अमृतवल्ली ही अपना प्रभाव दिखला सकती है, वैसे ही राज्यभोग की समृद्धि भी मेरी बुद्धि को फिर से नया जीवन नहीं दे सकती। हे कृपानिधि! उसे पुनर्जीवित करने के लिये केवल आपकी करुणा की ही जरूरत है।” पलभर के लिये भ्रान्ति के पाश से मुक्त अर्जुन ने एक बार ये सब बातें कह तो दीं, किन्तु फिर झट से ही उस पहले वाली लहर ने आकर उसे दबोच लिया। परन्तु थोड़ा सोचने-समझने पर तो मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि यह केवल भ्रान्ति की लहर ही नहीं थी, अपितु उससे भिन्न कुछ और ही चीज थी। वह प्रत्यक्ष महामोहरूपी कालसर्प के द्वारा ग्रस लिया गया था और उसका हृदयकमल जिस समय करुण रस से भरा हुआ था, उसी समय उसे कालसर्प ने डँसा था, जिसके कारण इस विष की लहरें रुकने का नाम ही न लेती थीं। उसकी दशा देखकर वे श्रीकृष्णरूपी विषवैद्य; जो केवल देखनेमात्र से ही इस विष का शमन कर सकते थे, अविलम्ब उसकी रक्षा के लिये दौड़े हुए आ पहुँचे। जो पाण्डुकुमार इस प्रकार व्यग्र हो गया था, उसके सन्निकट ही श्रीकृष्ण विराजमान थे और वे अपनी दया-वृत्ति से; सहज भाव से ही उसकी रक्षा करेंगे। |
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