ज्ञानेश्वरी पृ. 35

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

Prev.png

अध्याय-2
सांख्य योग

न हि प्रपश्यामि ममापनुद्याद्
यचछोकमुच्छोषणमिन्द्रियाणाम्।
अवाप्य भूमावसपत्नमृद्धं
राज्यं सुराणामपि चाधिपत्यम्॥8॥

“अपने वंशजों को यहाँ देखकर मेरे मन में जो शोक उत्पन्न हुआ है, उसे भला आपके उपदेशों के अलावा दूसरा कौन दूर कर सकता है? अब चाहे मुझे पूरी पृथ्वी का राज्य ही क्यों न प्राप्त हो जाय अथवा इन्द्रपद ही क्यों न मिल जाय, पर फिर भी मेरे मन का मोह मिट नहीं सकता। जैसे भुने हुए बीज उर्वराभूमि में भी बोये जायँ और उनकी आवश्यकतानुसार सिंचाई भी की जाय तो भी वे अंकुरित नहीं हो सकते अथवा जैसे आयु समाप्त हो जाने के बाद फिर कोई दवा कारगर नहीं हो सकती और एकमात्र अमृतवल्ली ही अपना प्रभाव दिखला सकती है, वैसे ही राज्यभोग की समृद्धि भी मेरी बुद्धि को फिर से नया जीवन नहीं दे सकती। हे कृपानिधि! उसे पुनर्जीवित करने के लिये केवल आपकी करुणा की ही जरूरत है।” पलभर के लिये भ्रान्ति के पाश से मुक्त अर्जुन ने एक बार ये सब बातें कह तो दीं, किन्तु फिर झट से ही उस पहले वाली लहर ने आकर उसे दबोच लिया। परन्तु थोड़ा सोचने-समझने पर तो मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि यह केवल भ्रान्ति की लहर ही नहीं थी, अपितु उससे भिन्न कुछ और ही चीज थी। वह प्रत्यक्ष महामोहरूपी कालसर्प के द्वारा ग्रस लिया गया था और उसका हृदयकमल जिस समय करुण रस से भरा हुआ था, उसी समय उसे कालसर्प ने डँसा था, जिसके कारण इस विष की लहरें रुकने का नाम ही न लेती थीं। उसकी दशा देखकर वे श्रीकृष्णरूपी विषवैद्य; जो केवल देखनेमात्र से ही इस विष का शमन कर सकते थे, अविलम्ब उसकी रक्षा के लिये दौड़े हुए आ पहुँचे। जो पाण्डुकुमार इस प्रकार व्यग्र हो गया था, उसके सन्निकट ही श्रीकृष्ण विराजमान थे और वे अपनी दया-वृत्ति से; सहज भाव से ही उसकी रक्षा करेंगे।

Next.png

संबंधित लेख

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः