श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-11
विश्वरूप दर्शनयोग
अर्जुन ने भगवान् के ऐसे सुन्दर-सुन्दर मुख देखे कि मानो वे विष्णु के राजभवन थे अथवा लावण्य लक्ष्मी के अनेक भण्डार थे अथवा बाहर से पूर्ण आनन्दवन अथवा सौन्दर्य-साम्राज्य थे; परन्तु इस सुन्दर मुखों के बीच-बीच में बहुतेरे ऐसे मुख भी थे, जो बहुत ही भयानक जान पड़ते थे। उन्हें देखकर ऐसा भान होता था कि मानो कालरात्रि की सेना ही उमड़ पड़ी हो अथवा स्वयं मृत्यु के मुख निकल आये हों अथवा भय के किले ही बनाये गये हों अथवा प्रलयाग्नि के महाकुण्ड ही खुल गये हों। उस विश्वरूप में अर्जुन ने ऐसे बहुत-से विकराल मुख देखे तथा बहुत-से सजे सजाये सौम्य मुख भी देखे। वास्तव में उस ज्ञान-दृष्टि को भी कहीं उन मुखों का अवसान दृष्टिगोचर नहीं होता था। फिर अर्जुन बड़े कौतुक से उस विश्वरूप के आँखों की ओर देखने लगा। वे आँखें नाना प्रकार के प्रस्फुटित कमल-वन की भाँति थीं। इस प्रकार सूर्य के रंग के और ऐसे तेजस्वी आँख अर्जुन ने देखे। जैसे कल्पान्काल में श्यामवर्ण के मेघ-समूह में विद्युत् की चमक दृष्टिगत होती है, वैसे ही उन श्याम और टेढ़ी भौहों के नीचे अग्नि की तरह पीतवर्ण की दृष्टि की किरणें सुशोभित हो रही थीं। इस प्रकार उस एक ही रूप में भिन्न-भिन्न प्रकार के अनेक चमत्कार देखकर अर्जुन को उस रूप की अनेकता पूर्णरूप से विदित हो गयी। वह मन-ही-मन कहने लगा कि इसके चरण कहाँ हैं? मुकुट किस ओर हैं तथा हाथ कहाँ हैं? इस प्रकार विश्वरूप-दर्शन की उसकी उत्सुकता बढ़ने लगी। उस अवसर पर अर्जुन मानो भाग्यनिधि ही बन गया था। |
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