श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-11
विश्वरूप दर्शनयोग
दिशाओं के चिह्न भी मिट गये। अधोर्द्ध की परिकल्पना ही समाप्त हो गयी। उसके लिये सृष्टि के आकार का आज वैसे ही लोप हो गया था जैसे जागने पर स्वप्न की समस्त बातों का अन्त हो जाता है अथवा जैसे सूर्य के तेज के प्रभाव से चन्द्रमा सहित समस्त तारागण अदृश्य हो जाते हैं, वैसे ही मालूम पड़ता है कि मानो प्रभु के इस विश्वरूप ने सृष्टि की सारी रचना को ग्रस लिया है। उस समय उसके मन का मनत्व भी जाता रहा। बुद्धि स्वयं को सँभाल न सकी और इन्द्रियों की वृत्तियाँ उलटकर हृदय में भर गयीं। उस समय स्तब्धता और एकाग्रता चरम सीमा पर पहुँच गयी, मानो सारे विचार-समूह पर किसी ने मोहनास्त्र चला दिया था। जब इस प्रकार विस्मित होकर अर्जुन कौतुक से देखने लगा, तब उसे अपने समक्ष चतुर्भुज श्रीकृष्ण का कोमल स्वरूप दिखायी पड़ा। परन्तु वही रूप चतुर्दिक् नाना प्रकार के वेशों में दिखायी पड़ रहा था। जैसे वर्षा-ऋतु में मेघों के समूह निरन्तर बढ़ते जाते हैं अथवा महाप्रलय काल के सूर्य का तेज निरन्तर बढ़ता जाता है, वैसे ही उस समय भगवान् के विश्वरूप ने अपने सिवा और कुछ भी अवशिष्ट नहीं रहने दिया था। पहले तो आत्मस्वरूप का साक्षात्कार होने पर अर्जुन को समाधान प्राप्त हुआ, फिर उसने सहज भाव से आँखें खोलीं तो उसे विश्वरूप के प्रत्यक्ष दर्शन हुए। अर्जुन के चित्त में जो इस चीज की लालसा थी कि मैं अपनी इन्हीं आँखों से विश्वरूप का दर्शन करूँ, सो उसकी वह लालसा भगवान् श्रीकृष्ण ने इस प्रकार पूरी कर दी।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (165-196)
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