ज्ञानेश्वरी पृ. 347

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-11
विश्वरूप दर्शनयोग

फिर संजय ने कहा कि-हे कौरव राज! इसमें विस्मय की कौन-सी बात है? श्रीकृष्ण जिसको स्वीकार कर लेते हैं; उसका ऐसा ही भाग्योदय होता है। यही कारण है कि देवाधिपति भगवान् श्रीकृष्ण ने पार्थ से कहा-“हे पार्थ! अब मैं तुम्हें दिव्य दृष्टि प्रदान करता हूँ। इसके सहयोग से तुम मेरा विश्वरूप देख सकोगे।” अभी भगवान् श्रीकृष्ण के मुखारविन्द से पूरी बात निकलने भी नहीं पायी थी कि अर्जुन का अविद्यारूपी अँधेरा बिल्कुल मिटने लगा। वे श्रीकृष्ण के मुख से निकले हुए अक्षर नहीं थे अपितु ब्रह्मस्वरूप के साम्राज्य का जो दीपक है उसी की यह ज्ञानरूपी ज्योति श्रीकृष्ण ने अर्जुन के लिये प्रज्वलित की थी। इसके बाद अर्जुन को दिव्य ज्ञान-नेत्र प्राप्त हो गये और उन्हीं नेत्रों में ज्ञान-दृष्टि के अंकुर प्रस्फुटित हुए। इस प्रकार भगवान् ने अर्जुन को अपने विश्वरूप-योग का ऐश्वर्य दिखलाया। परमात्मा के भिन्न-भिन्न अवतार जिस समुद्र की लहरों की भाँति हैं, जिसकी रश्मियों के योग से यह विश्वरूप मृगजल का आभास उत्पन्न करता है, जिस अनादिसिद्ध स्वयंभू, समान और सपाट भूमिका पर इस चराचर का चित्र अंकित होता है, वही अपना विश्वरूप श्रीकृष्ण ने उस समय अर्जुन को दिखलाया।

एक बार बचपन में जब श्रीपति ने मिट्टी खायी थी, तब यशोदा ने क्रोधाविष्ट होकर उनकी कलाई पकड़ ली थी। इस पर इस बात का प्रमाण देने के लिये कि मेरे मुख में कुछ भी नहीं है, श्रीकृष्ण ने डरते-डरते अपनी तलाशी देने के उद्देश्य से अपना मुख खोला था। उस समय उस मुख में यशोदा को चतुर्दश भुवनों के दर्शन हुए थे। अथवा मधुवन में एक बार भगवान् ने ध्रुव पर भी ऐसी ही अनुकम्पा की थी। ज्यों ही उन्होंने उसके कपोल से अपना शंख कराया था, त्यों ही वह अविराम गति से ऐसी बाते कहने लगा था जो वेद की भी समझ से परे था। हे राजन्! श्रीहरि ने धनंजय पर भी इस समय वैसा ही अनुग्रह किया था। यही कारण है कि उस समय पार्थ के लिये माया का मानो कहीं नामोनिशान भी नहीं रह गया था। उस समय एकदम से प्रभु के स्वरूप की ऐश्वर्य-प्रभा प्रकट हुई और उसे चतुर्दिक् चमत्कार का समुद्र ही दृष्टिगोचर होने लगा। इससे अर्जुन का मन विस्मय के समुद्र में डूब गया। जैसे मार्कण्डेय के सम्बन्ध में यह कथा है कि ब्रह्मलोक तक पूर्णरूप से भरे हुए जल में किसी समय अकेला मार्कण्डेय ही तैरता था, वैसे ही आज विश्वरूप के महोत्सव में एकमात्र अर्जुन ही लोट रहा था। वह कहने लगा-“अरे, यहाँ कितना बड़ा आकाश था। वह सब कौन कहाँ ले गयाॽ चराचर सहित वह समस्त जीव-सृष्टि कहाँ चली गयी?

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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