ज्ञानेश्वरी पृ. 340

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-11
विश्वरूप दर्शनयोग

इस प्रकार सिर्फ झूठे बहाने निकालकर आप स्वेच्छा से ही बलपूर्वक मुक्ति-पद का दान बहुतों के पल्ले बाँध देते हैं। फिर भला वही आप मेरे लिये अपनी उदारता त्यागकर दूसरे प्रकार का व्यवहार कैसे करेंगे? जो कामधेनु अपने दूध के प्रभाव से ही सारे जगत् के संकट का निवारण करती है, क्या स्वयं उसके बच्चे कभी भूखे रह सकते हैं? इसीलिये मैंने आपसे जो कुछ दिखलाने की विनती की है‚ हे देवǃ निःसन्देह वह आप मुझे अवश्य दिखलावेंगे; किन्तु पहले आप उसे देखने की योग्यता मुझमें उत्पन्न करें। यदि आपका विश्वरूप देखने की योग्यता मेरी आँखों में हो तो हे प्रभु! आप मेरी यह लालसा पूरी करें।”

जिस समय सुभद्रापति ने ऐसी स्पष्ट प्रार्थना की, उस समय षड्गुणों के ऐश्वर्य से सम्पन्न वे श्रीकृष्ण चुप न रह सके। भगवान् श्रीकृष्ण केवल दयामृत से लबालब भरे हुए मेघ थे और अर्जुन मानो निकट आया हुआ वर्षा काल था अथवा यदि हम श्रीकृष्ण को कोयल कहें तो अर्जुन उसके लिये वसन्त काल था अथवा जैसे पूर्णिमा के चन्द्रबिम्ब को देखते ही क्षीरसागर आवेश से भरकर उछलने लगता है, वैसे ही श्रीकृष्ण भी द्विगुणित प्रेम से भरकर उल्लसित हो गये। फिर चित्त की उस प्रसन्नता के आवेश में अत्यन्त कृपालु श्रीकृष्ण ने गंभीर वाणी में कहा-“हे पार्थ! यह मेरा अनन्त और अपार स्वरूप देखो।” अर्जुन की तो केवल एक ही विश्वरूप देखने की इच्छा थी, पर श्रीकृष्ण ने अपने उस विश्वरूप में सम्पूर्ण विश्व दिखला दिया। सामर्थ्य सम्पन्न श्रीकृष्ण की उदारता अपरिमित ही है। किसी व्यक्ति को अपनी इच्छा से माँगने के लिये तैयार भर होना चाहिये। फिर वे उस याचक को अपना वह सब कुछ न्योछावर कर देते हैं जो उसकी याचना से सहस्रगुना बढ़कर होता है। जिस गुप्त रहस्य को भगवान् ने हजारों नेत्रों वाले शेषनाग से भी दूर रखा, जिसका पता वेदों को भी नहीं लगा, जिसके दर्शन से लक्ष्मी ही वंचित रहीं, वही रहस्य आज भगवान् ने अनेक प्रकार से प्रकट करके परम सौभाग्यशाली अर्जुन को अपने विश्वरूप के दर्शन करा दिये थे। जैसे जागने वाला व्यक्ति स्वप्नावस्था में पहुँचकर उस स्वप्न का ही हो रहता है, वैसे ही श्रीकृष्ण भी स्वयं ही इस समय अनन्त ब्रह्माण्ड हो रहे हैं। उन्होंने अपने कृष्णरूप का अवसान करके और स्थूल अर्थात् माया दृष्टि का आवरण हटा करके अपना योग-सर्वस्व ही बिल्कुल प्रकट कर दिया है। उस समय भगवान् को इसका ध्यान ही नहीं रहा कि अर्जुन में मेरा रूप देखने की पात्रता है अथवा नहीं। उन्होंने स्नेहातुर होकर कहा-“अच्छा, यह देखो विश्वरूप।”[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (89-122)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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