श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-2
सांख्य योग
कार्पण्यदोषोपहतस्वभाव: बहुत कुछ सोच-विचार करने पर भी मैं अभी तक यह जान नहीं पाया हूँ कि मेरे लिये इनमें से कौन-सी बात हितकर है। इसका प्रमुख कारण यह है कि मोहन ने मेरे चित्त को व्याकुल कर दिया है। जैसे अँधेरा छा जाने से नेत्रों का तेज चला जाता है और तब अत्यन्त निकट की वस्तु भी नहीं सूझती; हे देव! ठीक वैसी ही दशा इस समय मेरी भी हुई है। सच्चाई यह है कि मेरा मन भ्रमित हो गया है और मेरा हित किसमें है यह मेरी समझ में नहीं आ रहा है। इसीलिये हे भगवन्! अब आप ही इन समस्त बातों को पहले सोच-समझ लें, फिर मेरे लिये जो हितकर बात हो उसे बतावे; क्योंकि आप ही मेरे मित्र हैं और आप ही मेरे सर्वस्व हैं। मेरे गुरु, बन्धु-बान्धव, इष्ट-मित्र, पिता, इष्टदेव और घोर आपदा से उबारने वाले आप ही हैं। क्या गुरु कभी अपने शिष्य का तिरस्कार करता है? क्या सागर ने कभी सरिता का साथ छोड़ा है? माता यदि अपने बच्चे को छोड़कर कहीं चली जाय तो क्या वह बच्चा जीवित रह सकता है? हे श्रीकृष्ण! आप ध्यानपूर्वक मेरी बात सुने। हे देव! इन दृष्टान्तों की भाँति मेरे लिये केवल आप-ही-आप हैं। अत: मैंने अभी-अभी जितनी बातें आपसे कही हैं, यदि वे बातें आपको न जँचती हों तो हे पुरुषोत्तम! आप शीघ्रातिशीघ्र मुझे वह तत्त्व बतलावें जो मेरे लिये हितकर हो तथा धर्म के अनुकूल हो।”[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (55-63)
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