ज्ञानेश्वरी पृ. 339

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-11
विश्वरूप दर्शनयोग

आपका औदार्य (ऐश्वर्य) एकदम निराला है, स्वयं सिद्ध और बन्धनरहित है। आप दान देते समय पात्र और अपात्र का कुछ भी विचार नहीं करते। मोक्ष-जैसी पावन वस्तु आपने अपने कट्टर शत्रुओं तक को दे डाली है। सचमुच में मोक्ष प्राप्त होना कितना कठिन है, पर वह भी आपके श्रीचरणों में सेवारत रहता है और इसीलिये आप उसे जहाँ भेज देते हैं, वह वहाँ ही चला जाता है। जो पूतना स्तन में विष भरकर आपको दूध पिलाने के बहाने मार डालने के लिये आयी थी, उसे भी आपने सनकादिकों की भाँति ही सायुज्य मुक्ति का रसास्वादन कराया था। फिर हमारे राजसूय यज्ञ में तीनों लोकों के सभासदों के सभासदों के समक्ष जिसने सैकड़ों दुर्वचनों से आपका अपमान किया था उस अपराधी शिशुपाल को भी, हे गोपाल! आपने अपना पद प्रदान किया। राजा उत्तानपाद के पुत्र ध्रुव को क्या ध्रुव-पद (अक्षयपद) पाने की लालसा थी? वह तो वन में सिर्फ इसी निमित्त से गया था कि मुझे अपने पिता की गोद में बैठने की योग्यता मिल जाय। पर आपने उसे स्वयं ध्रुव-पद प्रदान करने चन्द्रमा और सूर्य से भी बढ़कर श्रेष्ठ बना दिया।

इस प्रकार दुःख से पीड़ित मनुष्यों को बिना आगा-पीछा सोचे उदारतापूर्वक कृपादान देने वाले एकमात्र आप ही हैं। अजामिल ने केवल अपनी ममता के वशीभूत होकर अपने नारायण नामक पुत्र को पुकारा था। परन्तु उसके नारायण नाम बोलते ही आपने उसे मुक्ति-पद प्रदान कर दिया। जिन भृगु ऋषि ने आपके वक्षःस्थल पर चरण-प्रहार किया था, उनका चरण-चिह्न आप अब तक आभूषण की भाँति धारण करते हैं। आपके परम वैरी शंखासुर का शरीर जो शंख है, उसे आप कभी नहीं भूलते। इस प्रकार आप अपकारी का भी उपकार करते हैं; अपात्र के प्रति भी उदारता दिखलाते हैं। आपने सबसे पहले तो राजा बलि से दान माँगा और तब स्वयं ही उलटे उसके द्वारपाल हो गये। जो गणिका न तो कभी आपकी पूजा करती थी और न तो कभी आपका गुणानुवाद ही सुनती थी और सिर्फ अपने मनोंरजन के लिये अपने तोते को ‘राम-राम’ कहना सिखलाती थी, उसे भी केवल इस राम-नाम लेने के बहाने ही आपने वैकुण्ठ का सुख प्राप्त करवा दिया था।

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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