श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-11
विश्वरूप दर्शनयोग
किरीटी ने कहा-“हे महाराज! आपने मुझे जो ज्ञानोपदेश किया है, उससे मुझे समाधान प्राप्त हुआ है। अब जिसके संकल्प से यह लोक परम्परा उत्पन्न और विलीन होती है, जिसे आप स्वयं ‘मैं’ कहते हैं; आपका जो वह मूलस्वरूप है, जिससे आप देवताओं के कष्टों को दूर करने के लिये दो भुजा वाले और चार भुजा वाले रूप धारण करते हैं, पर जलशयन के निमित्त से अथवा मत्स्य, कच्छप इत्यादि के रूप में किये जाने वाले नाटकों के समाप्त होने पर आपकी सगुणता जिस जगह में विलीन होती है, उपनिषद् जिसका गान करते हैं, योगी हृदयस्थ होकर जिसे देखते हैं, सनक इत्यादि जिसे अपने हृदय से लगाये रहते हैं और आपके जिस अनन्त विश्वरूप का वर्णन मैं सदा अपने श्रवणेन्द्रियों से श्रवण करता आया हूँ, हे देव! आपका वही विश्वरूप अपने नेत्रों से देखने के लिये मेरा चित्त बहुत उतावला हो रहा है। हे प्रभु! आपने मेरी समस्त आपदाओं को मिटा करके अब तक बड़े प्रेम से मेरी प्रत्येक लालसा पूरी की है। अब मेरी सिर्फ एक ही अभिलाषा शेष रह गयी है कि आपके उस विश्वरूप के दर्शन मुझे इन आँखों से हो जायँ।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (81-88)
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