ज्ञानेश्वरी पृ. 337

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-11
विश्वरूप दर्शनयोग


एवमेतद्यथात्थ त्वमात्मानं परमेश्वर ।
द्रष्टुमिच्छामि ते रूपमैश्वरं पुरुषोत्तम ॥3

किरीटी ने कहा-“हे महाराज! आपने मुझे जो ज्ञानोपदेश किया है, उससे मुझे समाधान प्राप्त हुआ है। अब जिसके संकल्प से यह लोक परम्परा उत्पन्न और विलीन होती है, जिसे आप स्वयं ‘मैं’ कहते हैं; आपका जो वह मूलस्वरूप है, जिससे आप देवताओं के कष्टों को दूर करने के लिये दो भुजा वाले और चार भुजा वाले रूप धारण करते हैं, पर जलशयन के निमित्त से अथवा मत्स्य, कच्छप इत्यादि के रूप में किये जाने वाले नाटकों के समाप्त होने पर आपकी सगुणता जिस जगह में विलीन होती है, उपनिषद् जिसका गान करते हैं, योगी हृदयस्थ होकर जिसे देखते हैं, सनक इत्यादि जिसे अपने हृदय से लगाये रहते हैं और आपके जिस अनन्त विश्वरूप का वर्णन मैं सदा अपने श्रवणेन्द्रियों से श्रवण करता आया हूँ, हे देव! आपका वही विश्वरूप अपने नेत्रों से देखने के लिये मेरा चित्त बहुत उतावला हो रहा है। हे प्रभु! आपने मेरी समस्त आपदाओं को मिटा करके अब तक बड़े प्रेम से मेरी प्रत्येक लालसा पूरी की है। अब मेरी सिर्फ एक ही अभिलाषा शेष रह गयी है कि आपके उस विश्वरूप के दर्शन मुझे इन आँखों से हो जायँ।[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (81-88)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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