ज्ञानेश्वरी पृ. 331

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-11
विश्वरूप दर्शनयोग

इसमें शान्त और अद्भुत रस तो मुख्य है ही, पर साथ ही अन्य रसों का भी ध्यान रखा गया है और केवल कैवल्य को ही स्पष्ट किया गया है। इस प्रकार का यह ग्यारहवाँ अध्याय है। यह अध्याय तो स्वयं श्रीकृष्ण का विश्राम स्थल है; पर समस्त सौभाग्यशाली व्यक्तियों में अर्जुन वास्तव में श्रेष्ठ है, जो यहाँ भी आ पहुँचा। परन्तु हम यह क्यों कहें कि एक अर्जुन ही इस जगह पर पहुँचा है? अब तो यही कहना समीचीन होगा कि जो चाहे, वह इस जगह पर पहुँच सकता है, क्योंकि अब गीतार्थ देशी भाषा के रूप में प्रकट हो गया है। इसलिये हे श्रोतावृन्द! आप सब लोग मेरी विनम्र प्रार्थना ध्यानपूर्वक सुनें। इस समय आप सन्तजनों की सभा में मुझे ऐसी ढिठाई भरी बातें नहीं कहनी चाहिये; पर फिर भी आप लोग प्रेमपर्वूक मुझे अपना बालक ही समझें। आप यदि किसी तोते को बोलना सिखलावें और वह तोता आपसे सीखकर बोलने लगे तो आप लोग आनन्द से सिर हिलावेंगे अथवा यदि माता किसी बालक को किसी कुतूहलपूर्ण कार्य में नियुक्त कर दे और वह बालक उस काम को करने लगे, तो क्या माता उस बालक पर रीझती नहीं? इसीलिये हे प्रभु! मैं जो कुछ कहता हूँ, वह सब आप ही लोगों का सिखलाया हुआ है। अतः आप लोग अपनी ही सिखलायी हुई बातें सुनें। हे देव! यह साहित्य का सुमधुर वृक्ष आप लोगों ने ही लगाया है, अत: अब अपने अवधानरूपी अमृत-जल से सींचकर आप ही लोग इसे बड़ा भी करें। यदि आप सब लोग ऐसा करेंगे तो यह वृक्ष रसभावरूपी फूलों से भर जायगा, अनेक अर्थरूपी फलों से लद जायगा और आपके पुण्य-प्रताप से जगत् को सुखी होने का अवसर मिलेगा। इन वचनों से सन्तों को अत्यन्त प्रसन्नता हुई।

उन्होंने कहा-“वाह! वाह!! तुमने बहुत अच्छा किया। अब यह बतलाओ कि उस अवसर पर अर्जुन ने क्या कहा।” इस पर श्रीनिवृत्तिनाथ का शिष्य ज्ञानदेव कहता है कि महाराज! श्रीकृष्ण और अर्जुन का वह गहन संवाद मैं निर्बुद्धि क्या बतलाऊँ! हाँ, आप ही लोग वह सब बातें मुझसे कहलावेंगे। वन के पत्ते खाने वाले बन्दरों के हाथों भी लंकेश्वर रावण का पराभव हो गया और उधर अर्जुन एकदम अकेला था, पर फिर भी उसने ग्यारह अक्षौहिणी सेनाओं का नाश किया। इसीलिये कहना पड़ता है कि सामर्थ्यवान् व्यक्ति जो कुछ चाहते हैं, वह चराचर में हो ही जाता है। इसी प्रकार आप लोग भी मुझे बोलने में प्रवृत्त कर रहे हैं। अब मैं श्रीवैकुण्ठाधिपति के मुख से निकली हुई गीता का भाव बतलाता हूँ, आप लोग ध्यानपूर्वक सुनें।

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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