ज्ञानेश्वरी पृ. 327

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-10
विभूति योग


यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वं श्रीमदूर्जितमेव वा ।
तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोंऽशसंभवम् ॥41॥

हे धनंजय! जिन-जिन प्राणियों में सम्पत्ति और दयालुता दोनों एक साथ निवास करते हैं, उसके विषय में तुम यह अच्छी तरह से समझ लेना कि वे मेरी विभूति हैं।[1]


अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन ।
विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत् ॥42॥
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे
श्रीकृष्णार्जुनसंवादे विभूति योग ो नाम दशमोऽध्यायः।।10।।

गगनमण्डल में सूर्य का सिर्फ एक ही बिम्ब रहता है, पर उसकी प्रभा तीनों लोकों में व्याप्त रहती है। ठीक इसी प्रकार जिस एक की आज्ञा को सब लोग शिरोधार्य करते हों, उसे तुम कभी अकेला अथवा धनहीन मत समझना। क्या जहाँ-जहाँ कामधेनु जाती है वहाँ-वहाँ उसके साथ वस्तुओं की गठरी भी बँधी चलती है? नहीं परन्तु उससे जो कोई जो चीज माँगता है, वह चीज कामधेनु तत्काल प्रकट करने लगती है। इसी प्रकार उस एक विश्व-बीज में विश्व का सम्पूर्ण वैभव भरा रहता है, उसे पहचानने का लक्षण यह है कि पूरा विश्व उसके आगे घुटना टेकता है और उसकी आज्ञा की वन्दना करता है। हे प्राज्ञ, जिस व्यक्ति में इस प्रकार का लक्षण दिखलायी दे, उसे ही तुम मेरा अवतार समझो। ऐसे अवतारों में किसी को साधारण और किसी को असाधारण समझना और उनमें इस प्रकार का भेदभाव करना महापाप ही है; क्योंकि यह सारा जगत् मैं ही हूँ। ऐसी स्थिति में साधारण और विशिष्ट भेदों की परिकल्पना किस दृष्टि से की जाय? इस प्रकार के भेदभाव की परिकल्पना करना मानो व्यर्थ ही अपनी बुद्धि को कलंकित करना है। निरर्थक ही घृत का मन्थन क्यों किया जाय? अमृत को पकाकर आधा करने से क्या लाभ है? क्या वायु में भी कभी दाहिने और बायें अंग होते हैं? यदि कोई व्यक्ति सूर्यबिम्ब का पेट और पीठ देखने का प्रयत्न करे तो इसका परिणाम सिर्फ यही होगा कि वह अपनी दृष्टि से ही हाथ धो बैठेगा। इसी प्रकार मेरे स्वरूप में भी सामान्य और विशेष वाली कोई भी भेदमूलक बात नहीं है। तुम मेरी एक-एक विभूति को पृथक्-पृथक् लेकर मेरे अपार स्वरूप को कहाँ तक नापोगे?

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (307)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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